भारत-चीन संबंध
Indo-China Relation
राजनीतिक दृष्टि से संबंधों की
दुनिया भी बड़ी अनोखी हुआ करती है। एशिया के दो महान और अत्यंत प्राचीन
सभ्यता-संस्कृति वाले देश भारत और चीन अपनी खोई हुई स्वतंत्रता मात्र एक वर्ष के अंतर
से पुन: प्राप्त करने में सफल होपाए थे। भारत का नया जन्म सन 1947 और आधुनिक साम्यवादी चीन का जन्म सन 1948 में हुआ। अपने नए जन्म के लिए दोनों को लगभग
समान स्थितियों में लंबा संघर्ष करना पड़ा। चीन जब जापान से जूझ रहा था, तब स्वंय पराधीन और ब्रिटिश सरकार से संर्घरत
होते हुए भी भारत ने चीन की हर प्रकार से सेवा-सहायता की। इतिहास इस बात का गवाह
है। फिर भी कुछ महत्वकांक्षी राजनीतिक कारणों से एशिया के इन दो महान देशों में
संबंध मधुर न रह सके। इसे न केवल इन दो देशों, बल्कि पूरे एशिया प्रायद्वीप और सारी शांतिप्रिय मानवता का
दुर्भाज्य ही कहा जाएगा। इस संबंधहीनता ने नए-नए अस्भाविक समीकरणों को भी जन्म
दिया है।
चीन जब आधुनिक रूप में उदित हुआ,
तो उसने ऊपरी तौर पर हर प्रकार से भारत,
चीन और उसकी जनता के प्रति सदभावना एंव मैत्री
की भावना प्रदर्शित की। दोनों के महान नेता पं. जवाहरलाल नेहरु और चाऊ एन लाई
एक-दूसरे देश की यात्रांए कर, एक-दूसरे की
सार्वभौमिक स्वतंत्रता, सत्ता और सीमाओं
को स्वीकार कर हर स्तर पर संबंधों को सुदृढ़ बनाने की बात कहते रहे। सन 1953 कमें जब चाऊ एन लाई भारत आए, तब नेहरु और चाऊ ने पंचशील के उन सिद्धांतों को
पुनर्जन्म दिया, जो महात्मा बुद्ध
के काल से भारत और पूरे एशिया के आधारभूत आदर्श रहे हैं। बडे जोर-शोर से
हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे भी लगाए जाते रहे। भारत सच्चे मन से इन नारों और
पंचशील की नीतियों का पालन करता रहा, जबकि चीन का इस सबकी आड़ में और ही नीहित स्वार्थ छिपा था। इसी की पूर्ति की
दिशा में वह भीतर-ही-भतर सक्रिय रहा और तब तक रहा कि जब तक भाई-चारे की पवित्र
भावना से प्रेरित होकर भारत ने अपना ही एक हिस्सा तिब्बत चीन को नहीं सौंप दिया।
चीन वस्तुत: पंचशील और ‘भाई-भाई’ के नारों की आड़ में तिब्बत तो लेना ही चाहता था, उसने उत्तर-पूर्वी सीमांच पर मैकमोहन-सीमा-रेखा
के इधर भी भारतीय भूमि पर अपनी नजरें गड़ा रखी थीं। अत: जब उसे तिब्बत मिल गया और
वहां के धार्मिक नेता दलाई लामा चीनियों के आतंक से पीडि़त होकर भारत आ गए,
तो और भी चिढक़र उसने भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा
प्रदेश के भीतर कभी झंडे गाडऩे, कभी चौकियां
बनाने और कभी गलत मानचित्र प्रकाशित करने जैसे विरोधी एंव शत्रुतापूर्ण कार्य आरंभ
कर दिए। पंचशील और भाईचारे के नाम पर भारत जब विरोध प्रकट करता, तो उसे एक मानवीय भूल कहकर टाल दिया जाता। पर
अंत में सन 1962 में उसकी
भेडिय़ा-वृत्ति की पोल तब खुल गई जब उसने अचानक भारतीय सीमाओं पर आक्रमण कर हजारों
वर्ग मीटर भारतीय प्रदेश पर अपना अधिकार जमा सभी समझौतों और संबंधों की धज्जियां
उड़ा दीं। तब से लेकर आज तक भारत-चीन संबंध सुधन नहीं पाए यद्यपि आज सीमाओं को
छोड़ अन्य बातों से पहले सा तनाव नहीं रह गया। छोटी-छोटी बातों को लेकर उनमें
सीमाओं पर भी अब तनाव उभरता रहता। वस्तुत: जब तक सीमाओं का मामला सुलझ नहीं जाता,
तब तक संबंध पूर्णतय सुधर भी नहीं सकते और
सीमा-संबंधी मामले सुधरते हुए अभी दिख नहीं पड़ते।
भारत से दुश्मनी निभाने के लिए चीन
ने पाकिस्तान से दोस्ती की पींगे बढ़ाई और आज भी बढ़ा रहा है। जिस कश्मीर को पहले
वह भारत का भाग मानता था, आज पाकिस्तान के
माध्यम से उस पर भी उसने नजर गाड़ रखी है। दो बार भारत-पाक युद्ध के अवसरों पर भी
उसने पाक का ही समर्थन-सहायता की है। भारत के अराजक और विभाजक तत्वों को भी वह
तोड़-फोड़ का प्रशिक्षण एंव शास्त्रास्त्र देता रहता है। एशियाड के अवसर पर जब
अरुणाचल प्रदेश के लोकनर्तक मैदान में आए, तब उनका बहिष्कार कर खेल में राजनीति, घुसेडऩे का भद्दा प्रयास भी चीन ने किया। हां, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर वह भारत के विरुद्ध पहले
की तरह अपना रुख अपनाए नहीं रखता है। अत: टूटा हुआ दूत स्तर का संबंध फिर से कामय
हो जाने के बावजूद भी भारत-चीन संबंधों को अभी तक संपूर्णत: ठीक नहीं कहा जा सकता।
प्रयास जारी है। परिणाम भविष्य ही बता सकता है। चीन की जिस प्रकार की विस्तारवादी
नीतियां हैं, उनके चलते कभी
संबंध पूरी तरह सुधर पाएंगे, कहा नहीं जा
सकता। फिर भी राजनीति में असंभव कुछ नहीं होता। आजकल जो लगातार कई तरह के प्रयत्व
चल रहे है। उनसे संबंध के संपूर्ण सुधार की आशा अवश्य की जा सकती है।
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