भारत-पाक संबंध
Indo-Pak Relation
आज का पाकिस्तान अपनी मूल
स्थिति में अखंड और विशाल भारत का ही कटा हुआ अंग है, जो कि मात्र सन 1947 में अस्तिथ्व में आ सका। इसके विपरीत भारत का एक प्राचीन इतिहास है, परंपरा और संस्कृति है। खेद के साथ कहना पड़ता
है कि मुस्लिम देश होते हुए भी पाकिस्तान की अपने कोई बुनियादी, कोई परंपरागत सभ्यता-संस्कृति नहीं है। वह
वस्तुत: परंपरागत भारतीय सभ्यता-संस्कृति का ही एक कटा-छटा एंव मध्य युग बलात
धर्म-परिवर्तित करने वाला अंग है। वह आज अपनी अलग-थलग पहचान बनाने को आतुर तो है,
पर निहित स्वार्थी तत्वों-देशों का दत्तक बन
जाने के कारण वह विशेष कुछ बन नहीं पा रहा। बन रहा है मात्र अराजकता एंव विद्रूप
तानाशाही का अखाड़ा।
अखंड भारत-पाक का विभाजन दो
धर्मों-जातियों के सिद्धांत पर हुआ। न चाहते हुए भी तत्कालीन नेताओं ने विभाजन का
यह आधार स्वीकार किया। इस आशा से स्वीकार किया कि जिस प्रकार एक परिवार के दो बेटे
परिस्थितिवश पारस्परिक कष्ट से बचे रहने के लिए अलग तो हो जाते हैं। पर उनके
भ्रातृत्व के संबंध समाप्त नहीं हो जाते। उसी प्रकार अलग-अलग रहकर भारत-पाक के
नागरिक परंपरागत भाईचारा निभाते हुए अपने-अपने घरों से शांतिपूर्वक रह सकेंगे। यही
सोचकर विभाजित स्वतंत्रता के बाद भारत ने गृह-नीतियां, धर्म-संप्रदाय-निरपेक्षता पर आधारित बनाई और विदेशी नीति
में तटस्थता पर बल दिया। पर पाकिस्तान अपनी कुंठित मानसिकता, इस्लामी कट्टरता को न छोड़ सका। वह भारत को
अपना अलग हुआ भाई या एक ही परंपरागत संस्कृति का अंग स्वीकार न कर सका। यह
मानसिकता तक न बना सका कि हम दोनों को अपने-अपने घरों में, सीमाओं में शांतिपूर्व रहना है। ऐसी दशा में भारत-पाक
संबंधों में सदभावना आती भी तो कैसे? वह संभव हो ही नहीं सकता था।
भारत-पाक-विभाजन के बाद
पाकिस्तान जितना मिला था, उतने से संतुष्ट
न रह सका। उस पर अमेरिका आदि की शह, विभाजन के तत्काल बाद कश्मीर पर आक्रमण कर उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा हथिया लिया।
गांधी जी का कहा न मान यदि भारत ने सैनिक प्रयोग कर कश्मीर के उस भाग को उसी समय
मुक्त करवा लिया तो, तो निश्च ही आज
दोनों देशों के संबध काफी अच्छे होते। पर अब कश्मीर संबंधों के केक में उस कांटे
के समान गड़ा है जो उगलते-निगलते नहीं बन पा रहा है। फिर अब विश्व राजनीति के
निहित स्वार्थ भी काफी बदल चुके तथा संबद्ध हो चुके हैं। कश्मीर पाने के लिए सन 1965 में पाक ने भारत पर आक्रमण किया और मुंह की
खाई। ताशंकद समझौता हुआ। फिर सन 1972 में आक्रमण और शिमला समझौता हुआ। परंतु परिणाम? वही ढाक के तीन पात। सच तो यह है कि पाकिस्तान का प्रत्येक
शासक भारत-विरोध और कश्मीर दिलाने की बचाकान नीति पर ही सत्ता में कुछ दिनों तक
टिक पाता है। अत: दोनों भाई-देशों में संबंध सहज हों भी तो कैसे? राजनीतिक या फौजी तानाशाह अपनी कुर्सी की रक्षा
के लिए उन्हें सामान्य होने ही नहीं देना चाहते।
भारत-पाक संबंधों के सजह न हो
पाने का एक मनोवैज्ञानिक कारण भी है। वह यह कि पाक से प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत
अली की हत्या के बाद वहां जन-शासन कभी स्थापित हो ही नहीं सका। एक के बाद एक हमेशा
सैनिक तानाशाही का शासन रहा। आज का जन-निर्वाचित शासन भी उस प्रभाव से मुक्त नहीं
है। ऐसी स्थिति के कारण वहां किसी ऐसी स्वस्थ राजनीतिक चेतना का विकास ही संभव
नहीं हो सका, कि जो पड़ोसी और
अपने ही अंगभूत देश की मैत्री का महत्व समझ सके। भारत हमेशा यह मानता और कहता आ
रहा है कि अपने देश भारत की प्रगति और विकास के लिए हम यह आवश्यक समझते हैं कि
पाकिस्तान शांत, दृढ़ और समृद्ध
हो। पर तानाशाही स्वभाव से ही इस प्रकार की स्थितियों और पड़ोसियों को ही शांत
रहने दे सकती है। फिर आज तो पाक-तानाशाहों सेनाओं और राजनेताओं के मन में बंगाल के
अलग हो जाने का भी नासूर है। ऐसी हालत में यदि वे यहां के अलगाववादियों की मदद
करते हैं तो काई आश्चर्य नहीं। उस पर उन्हें अमेरिकी प्रधान रेगन और अब क्लिंटन
जैसा सहायक उपलब्ध है, जो अपने
स्वार्थों के लिए भारत-पाक संबंध सुधरने नहीं दे सकते। पाकिस्तानी झोली में अरबों
डालर की भीख डाल उसे भडक़ाते रहा करते हैं। फिर संबंध सुधार हो तो क्यों और कैसे?
जो हो, वस्तुस्थिति तो यह है कि भारत-पाक दोनों को इस धरती पर बने
रहना है। यह तभी संभव है, जब दोनों देश
शांतिपूर्वक सहयोगी बनकर प्रगति और विकास
की राह पर चलें। यह तथ्य पाक की जनता और नेता जितनी जल्दी समझ लें, उनका उतना ही भला है। संबंध सुधार की जो नई
प्रक्रिया आरंभ हुई है, देखें वह क्या
रंग लाती है और कब फल देती है। अभी तक तो उसके अंतर्गत एक कदम भी आगे बढ़ पाना
संभव नहीं हो सका, फिर भी निराश
नहीं हो जाना चाहिए। राजनीति में कभी कुछ भी संभव हो सकता है।
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