रूपये की आत्मकथा
Rupye ki Aatmakatha
हां । मैं रुपया
हूँ। सभी लोग मुझे से बहुत प्यार करते है।मैं भोजन खरीद कर देता हूँ।भोजन से शरीर
का पोषण होता है और पेट की भूख मिटती है।इस प्रकार मैं जीवन दान देता हूँ,मैं वस्त्र खरीदकर देता हूँ।जिन्हें पहनने से
देह की सर्दी और गर्मी से रक्षा होती है।मेरे कारण ही लोग मकान टी.वी., फ्रिज, सोफा,स्कूटर,कार तथा आराम की अन्य कई वस्तुएं खरीद पाते
है।मैं दोस्त, रिश्तेदार और
मित्र भी खरीद कर दे सकता हूँ।जिसके पास मैं नही होता उसके पास दोस्त,मित्र कोई नही होता।इसीलिए तो कहते है कि-‘बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपया। ‘ मेरे लिए लोग भरसक प्रयत्न करते है।सारा जीवन
मुझे अर्जित करने के लिए बिता देते है और मेरे लिए ही लक्ष्मी की पूजा करते है।
एक-दूसरें को धोखा भी दे देते है।यहाँ तक कि अपने कत्र्तव्य के पथ से भी भ्र्रष्ट
हो जाते है।इतना महत्व है मेरा सबके जीवन में। अतः आप मेरा इतिहास जानना चाहेंगे?
मेरी आत्मकथा सुनेगें , हाँ पैसे की आत्मकथा।आज मेरा जैसा स्वरूप है हमेशा से ऐसा
नहीं था। आज मुझे लोग सिर पर उठाते है। किन्तु शुरू में, मैं धरती पर ही था। मैं तो धरती का ही पुत्र हूँ।मेरा
सम्बन्ध तो खनिज जाति से है।मैं कई हजारों सालों तक धरती के गर्भ में छिपा
रहा।धरती से मुझे बाहर निकालने का श्रेय भी मनुष्य को ही जाता है।
धरती से निकालने
के लिए सबसे पहले मुझे मशीनों से खोजा गया।मेरा पता लगाया कि मैं कहाँ छिपा हुआ
हूँ। उसके बाद मुझे जमीन से बाहर निकाला गया।और गाड़ीयों में लादा गया।मैंने धरती
माँ को नमस्कार किया।मेरा मन उदास था।इतने सालों तक धरती की गोद में रहने के बाद
आज वियोग की घड़ी आ गई।धरती माँ भी उदास थी पर क्या करती। मैं उसका पुत्र था और
मेरे भविष्य का प्रश्न था।मैंने एक बाह धरती माँ को निहारा और यात्रा पर चल दिया।
कई दिनों की
यात्रा के बाद हमें एक सुरक्षित स्थान पर उतारा गया। अन्दर बड़ी-बड़ी कई मशीनें लगी
थी।भयंकर शोर था यह स्थान कारखाना था।मेरे साथ धरती के कई कण आ गये थे अतः मुझे कई
मशीनों में डाला गया।और रसायन मिलाये गये।मिट्टी ,पत्थर तथा अन्य कणों को मुझे से अलग किया गया।कई प्रकियाओं
से गुजरने के बाद मैं खनिज के वास्तिविक रूप् में आया। मैं साफ था और चमक रहा
था।इसके बाद मुझे टकसाल ले जाया गया जहाँ सिक्के बनाये जाते है।वहां मुझे गोलाकार
रूप् दिया गया।तब तक मुझे यह पता नही था कि हमारी कीमत क्या है।हम अपनी कीमत 50-60 पैसे ही समझते थे। हमारे वजन की कीमत इतनी ही
थी।शीघ्र ही रहस्य का पर्दा हटा । हम पर एक रूपये और महात्मा गाँधी का चित्र अंकित
कर दिया गया। हम खुश हो गये ।
हमें एक बक्से
में बन्द कर दिया गया और एक स्थान पर ले आए।वहाँ मेरे जैसे और कई सिक्के पहले से
ही उपस्थित थे। फिर पता चला कि यह स्थान भारतीय रिजर्व बैंक था। यहीें से मुझे
वितरित किया गया और मैं आपके हाथों में आ गया। जब से रिजर्व बैंक से निकला हूँ
मेरे मालिक बदल रहे हैं । मेरा स्वामी नाई है या कसाई , वकील हो या जज मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।बस इतना पता है कि
मुझे पाते ही सबके चेहरे खिल जाते है।आप मेरे वर्तमान मालिक है मुझे नही पता कि आप
अध्यापक है या विद्यार्थी।बस इतना जानता हूँ कि मुझे पाकर आप खुश हैं। यही मेरी
आत्मकथा हैं, पैसे की आत्म-कथा।
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