पुत्र के जीवन में अनुशासन का महत्त्व बताते हुए। 

12, रानीबाग 

नई दिल्ली 

11 मार्च 2014 

प्रिय शांतनु, 

स्नेहाशीष! कल ही तुम्हारी माँ का पत्र प्राप्त हुआ। यह जानकर प्रसन्नता हुई कि विद्यालय की बास्केट-बॉल टीम में तुम्हारा चयन हो गया है और पढ़ाई भी ठीक-ठाक चल रही है। तुम जानते हो कि ठीक-ठाक और श्रेष्ठता के बीच की दूरी यदि तय की जा सकती है तो इसका एकमात्र साधन है-अनुशासन और परिश्रम। प्रभु-प्रदत्त प्रतिभा और क्षमताओं को पूर्णता तक नहीं ना इस वरदान का निरादर करना है। मैं तुम्हारे अध्यापकों के संपर्क में रहता हूँ। उन्हीं से ज्ञात हुआ कि कक्षा में पढ़ाई के तुम साथ बैठे बच्चे से बातें करते रहते हो। मैं खेल के विरुद्ध नहीं हूँ, किंतु कक्षा की पढ़ाई छोड़कर खेलते रहना और पकड़े जाने पर झूठे बहाने बनाना-अच्छी बात नहीं है। दीवाली से पहले विद्यालय के शौचालय में पटाखे चलाते हुए भी तुम्हें पकडा गया था और अनुशासनहीनता के लिए दण्डित भी किया गया था। 

जानता हूँ उपदेश सुनने में तुम्हारी रुचि नहीं है, किंतु अपना भविष्य और आत्म-सम्मान बनाने में तो तुम्हारी रुचि होगी। प्रशासन नींव के उन पत्थरों के समान है, जिनपर भविष्य की सफलता का भवन खडा होता है। चरित्र-निर्माण का आधार भी अनुशासन ही है। क्या तुम जीवन में सफल नहीं होना चाहते? क्या सबके प्रिय और प्रशंसा के पात्र नहीं बनना चाहते? इन प्रश्नों के उत्तर ही तुम्हारा मार्ग-दर्शन करेंगे। मेरी नहीं, अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनो। एक पिता होने के नाते मेरा कर्तव्य है तुम्हें समय पर सावधान करूँ। हम तुम्हारा हित चाहते हैं। मुझे अपने अच्छे, प्यारे बेटे पर पूरा विश्वास है कि वह अनुशासन के महत्त्व को समुझेगा और भविष्य में ऐसा कोई काम नहीं करेगा जो तुम्हारे साथ, हम सबका सिर भी शर्म से झुका दे। 

मैं तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। अपनी माँ और छोटी बहन का ध्यान रखना। शुभकामनाओं सहित 

तुम्हारा बापू