हम कहाँ जा रहे हैं 
Hum Kahan Ja Rahe Hai

विज्ञान यान पर चढ़कर आज हम मंगल ग्रह की यात्रा की तैयारी में जुटे हैं। कैसी विडंबना है कि धरती पर निरंतर हमारे कदम शन होते जा रहे हैं। यह अमंगल का संकेत है। आदिमानव जिस नग्नता और पशुता से ऊपर उठकर सभ्यता के ऊँचे शिखरों था, आज उसकी यह यात्रा पुनः उसी नग्नता और पशुता की ओर तेजी से फिसलती जा रही है। नारी एक सचेतन, संवदेनशील व्यक्तित्व नहीं उपभोक्ता की बिकाऊ वस्तु बना दी गई है। पुरुषों के उपयोग में आने वाली शेविंग क्रीम से लेकर कच्छे बनियान तक के विज्ञापनों में उसे निर्लज्जता से परोसा जा रहा है। उसकी त्वचा की कोमलता और गोरापन निखारने को उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य बना दिया गया है। रही-सही कसर भौंडे और अश्लील गीतों ने पूरी कर दी है। द्विअर्थी शब्दों की अश्लीलता से दस कदम आगे अब 'चिकनी चमेली' और 'शीला की जवानी' की बातें खुलकर सामने लाई जा रही है। समाज का तथाकथित आधुनिक संपन्न वर्ग इस स्वच्छंदता को स्वतंत्रता सिद्ध करने में जुटा है, जो उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। मनोवैज्ञानिक भी मानवीय विकारों को सहज-प्राकृतिक प्रमाणित करने में जुटे हैं। एक युग लग जाता है शिखर तक पहुँचने में, किंतु वहाँ से कुछ क्षणों में ही फिसलकर आप नीचे आ सकते हैं। बस एक बात कहना चाहती हूँ उस पर विचार करें-

'लुढ़कते हुए पत्थर को भी यह भ्रम होता है कि वह आगे बढ़ रहा है।'