वसन्त ऋतु 
Vasant Ritu


शिशिर ऋतु आयी, पथिकों के प्राण संकट में पड़े। 'शिशिर' संज्ञा की सार्थकता भी इसी में है कि जिसमें शैत्य के कारण पथिकों को शश अर्थात खरगोश की तरह भागना पड़े। माघ और फाल्गुन वाली इस ऋतु में अतिशीत के कारण अपार कष्ट था। कहा गया है न, 'अति सर्वत्र वर्जयेत् ।' हमारी प्रकृतिरानी ने इसीलिए माघ-श्रीपंचमी को ऋतुराज वसन्त के पास निमंत्रण भेजा। माघ-श्रीपंचमी को वसन्तपंचमी कहने का यही रहस्य है। ऋतुराज ने अपने आगमन की स्वीकृति दे दी। फिर क्या था । जन-जन में आनन्द की बाँसुरी बज उठी। जनता ने अपने वसन्त महाराज के स्वागत में आन-पल्लव के बन्दनवार लटकाये और फाल्गुन पूर्णिमा के दिन उल्लास में रंग-अबीर से दिग्दिगन्त को रंगीन कर दिया। जनता के स्वागत से ऋतुराज सचमुच बड़ा प्रसन्न हुआ और एक-दो दिन की बात कौन कहे, पूरे दो महीने-चैत और वैशाखभर के लिए उसने पड़ाव डाल दिया। शीर्णा शिशिर गयी और जग पड़ी मधुमास ऋतु---'मैं शिशिर शीर्णा चली, अन जाग तू मधुमास आली ।'

अब क्या था? जहाँ राजा ही हो, वहीं राजधानी उतर आयी-'तहंड अवध जह राम निवासू।' प्रकृति रानी रंग-बिरंगे परिधानों से अपने राजा को आकृष्ट करने लगी,

अनगिन हाव-भावों से मन मोहने लगी। और, फिर क्या था। इस मदन-सखा की रास के लिए मदनोत्सव मनाया जाने लगा, क्योंकि वह सौन्दर्य-देवता कामदेव का सबसे बड़ा सहायक है। जिस उर्वशी के अपरूप रूप-निर्माण में वेद पढ़-पढ़कर पथराये खूसट वृद्ध ब्रह्मा असफल रहे, उसके निर्माण में कुसुमाकर वसन्त सफल हो सका। यही कारण है कि कवियों ने इस ऋतुराज के स्वागत में अपने हृदय के द्वार उन्मुक्त कर दिये और असंख्य कविताएँ लिखीं। कविवर दिनकर की ये पंक्तियाँ देखें

हाँ। वसन्त की सरस घड़ी है, जी करता मैं भी कुछ गाऊँ कवि हूँ, आज प्रकृति-पूजन में निज कविता के दीप जलाऊँ। उफ ! वसन्त या मदनबाण है? वन-वन रूप-ज्वार आया है; सिहर रही वसुधा रह-रहकर, यौवन में उभार आया है। कसक रही सुन्दरी, 'आज मधु-ऋतु में मेरे कन्त कहाँ?'

दूर द्वीप में प्रतिध्वनि उठती, 'प्यारी और वसन्त कहाँ ?' वसन्त का नाम 'पुष्प-समय' है, अर्थात् इसमें रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं। इसे 'माधव' कहते हैं, यानी यह मधुवाला है। अर्थात्, सर्वत्र मिठास-ही-मिठास भरी रहती है। वसुन्धरा इसी ऋतु में धनधान्य से परिपूर्ण होकर अपनी सार्थकता सिद्ध करती है और सब अन्नपूर्णा धरती की गोद में इन्द्रपुरी का सुख लूटते हैं।

अब हम शिशिर के शर से विद्ध नहीं होते, वसन्त की मादक सुरभि से प्रफुल्लित होते हैं। वस्तुतः, वसन्तऋतु में प्रकृति एक चिरन्तन रहस्य का उद्घाटन करती है कि यदि हम शिशिर में कष्ट सहन का साहस रख सकें, तो फिर हमारे जीवन में वसन्त अवश्य उतरेगा, यदि हम पतझड़ की उदासी बर्दाश्त कर सकें, तो वसन्त की रंगीनी का मजा जरूर लूटेंगे।

यहि आसा अटक्यो रहयो, अलि गुलाब के मूल। हैहैं बहुरि वसन्त ऋतु, इन डारिन वे फूल ।। -बिहारीलाल