प्रेमिका की ओर से प्रेमी को प्रणय पत्र



जयपुर । 

दिनांक 19 जून, 


मेरे प्रियतुम,

सस्नेह नमस्कार !

अत्र कुशलं तत्रास्तु । कल आपका पत्र मिला। पढ़कर मन की दशा विचित्र-सी हो गई । स्वयं तो अकेले मसूरी भाग गए और अब भेज रहे हैं निमंत्रण । यहाँ का वातावरण तो गर्मी से भरा पडा है, दिन भयंकर गर्मी में डबा रहता है और चाँदनी रात भी विशेष शीतल नहीं । रह गए कजरारे-श्वेत मेघ, उनका तो यहाँ चिह्न भी नहीं दिखाई देता । पत्र पढ़कर मसूरी की शीतलता, सखद वातावरण और चंद्र ज्योत्स्ना का कुछ अंश अवश्य मुझे मिल गया ।

मेरे हृदयेश ! मसूरी हमें अवश्य आना है। किंतु नित्य कोई-न- कोई कारण, प्रस्थान में विघ्न बनकर आ जाता है । आज उन विघ्नों का अंत करने का निश्चय कर लिया है । संध्या की गाड़ी से दिल्ली के लिए प्रस्थान करेंगे और अगले दिन बस द्वारा मसूरी पहुँच जाएँगे। चंद्र ज्योत्स्ना का पूरा-पूरा आनंद आपके दर्शन के आनंद से ही पा लूँगी।

आपके बिना जयपुर सूना-सूना लगता है। आप पहले से बताकर नहीं गए, इसकी शिकायत सदैव रहेगी । आपके पत्र को पाकर मन को कुछ राहत अवश्य मिली है । हम लोग आर्य समाज मंदिर में ठहरेंगे। सविता को भी सूचित कर देना।

शेष मसूरी पहुँचने पर। 

स्नेह के साथ आपकी,

पूनम 


प्रियतमा का पत्र – पूर्व पत्र के उत्तर में । 

दिल्ली,

दिनांक 24 जून,.... 


प्रिय अतुल,

स्प्रेम । 

अचानक तुम्हारा स्नेहसिक्त पत्र पाकर मैं आश्चर्यचकित-सी रह गई । तुम मेरे प्रति इतने आसक्त हो गए हो, इसकी स्वप्न में भी आशा न थी। मेरे जीवन का लक्ष्य बहुत ऊँचा है, उसमें अभी इस प्रणय बंधन का कोई स्थान नहीं और न ही इसका निर्णय मेरे अधिकार में है । पूज्य माता जी ने असंख्य आपदाओं का सामना करके मुझे इस योग्य बनाया है कि मैं पढ़ लिखकर उनके तथा देश के लिए कुछ कर सकूँ।

प्रिये ! मेरी बातों से निराश न होना । मेरी दृष्टि में विवाह एक घिनौनी वस्तु है। इसके करने में समय नष्ट होता है और बाद में भी। मैं इसे नारी जीवन का साधना मार्ग नहीं मानती । इसलिए इस विचार को अपने हृदय से निकाल दो । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि मेरी तुम्हारे प्रति निष्ठा समाप्त हो गई है या में तुम्हारे सत्कार्यों में साथ देने के लिए तैयार नहीं हूँ।

अतुल । तुमने मेरा संसर्ग पाकर जनहित में लगने की सोची है। उसमें मैं तुमसे पीछे नहीं हूँ। मैं स्वच्छंद प्राणी हूँ। माता जी ने मुझे इस मायावी दुनिया में रहना सिखा दिया है । मैं तुम्हारे द्वारा किए गए हर कार्य में साथ दूंगी । इस बात का निश्चय समझो ।

और हाँ, एक बात तो मैं भूल ही रही थी । तुम अर्चना के योग्य भी हो और अर्चना तुम्हें हृदय से चाहती है । फिर तुम दोनों के परिवार भी संपन्न हैं। उस प्रणय बंधन में किसी प्रकार का कोई विघ्न नहीं पडेगा. इसका मैं विश्वास दिलाती हूँ । स्वीकृति दो तो यह पुण्य कार्य मैं स्वयं ही अपने हाथों से करा दूं।

मेरी माता जी तुमसे मिलने के लिए आतुर हैं। कभी समय निकाल सको तो संध्या का भोजन मेरी कुटिया पर ही कर लेना । पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में ।

स्नेह के साथ, तुम्हारी,

रजनीगंधा