नवरात्र (दुर्गापूजन) 
Navratri 
or 
Durgapujan Vrat ki Vidhi aur Katha 
(चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से अष्टमी/नवमी तक)


यह उत्सव चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लेकर नवमी तक चलता है। इस उत्सव में दर्गा तथा कन्या पूजन का बड़ा महत्व है। हमारे धर्म में तैंतीस करोड़ देवी-देवता. हैं, परंतु साक्षात ईश्वर भगवान विष्णु और उनके राम व कृष्ण अवतारों को ही माना जाता है। मातृशक्तियों में यही स्थान भगवती भवानी को प्राप्त है।

माता के रूप और अवतार अनेक हैं परंतु इनमें नौ रूप तो बहुत ही प्रसिद्ध हैं। मातेश्वरी पार्वतीजी, धनधान्य की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी जी तथा वीणा-वादिनी सरस्वती तो इनके रूप हैं ही। जब-जब पृथ्वी पर पाप का बोझ चढ जाता है, तब मां भवानी कभी दुर्गा, कभी कालीमाई तो कभी विकराल चण्डी के रूप में अवतार धारण करती हैं।

वैसे तो भगवती भवानी की पूजा-आराधना नित्य ही की जाती है, परंतु वर्ष में दो बार नौ-नौ दिन तक मातेश्वरी की विशेष पूजाएं की जाती हैं। यदि पक्ष के पंद्रह दिनों के हिसाब से गणना करें तो वर्ष में 360 दिन होते हैं। इनमें चालीस नवरात्र होते हैं। इनमें दो नवरात्रों को प्रमुखता दी जाती हैं।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से औरम्भ होने वाले नवरात्र 'वासन्तिक' तथा आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से औरम्भ होने वालों को 'शारदीय' कहते हैं। इन दानों में समान विधि से शक्ति की उपासना की जाती है। नवरात्र पूजन प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त किया जाता है। इसमें ब्राह्मण 'सात्विक' तथा शूद्र 'तामसिक' पूजन करते हैं।

इसमें पूर्ण विधि-विधानपूर्वक अग्नि में हवन सामग्री, लौंग के जोड़े, घी, गुग्गुल, कपूर आदि की आहुतियां दी जाती हैं। अंतिम दिन इस पूजा के बाद छाट बालक-बालिकाओं को कन्या-लांगुरों के रूप में पूड़ी-हलवा और काले चना की सूखी सब्जी का भोजन कराकर वस्त्र व रुपये आदि दिए जाते है।

ये नवरात्र भारतीय नववर्ष से प्रारम्भ होते हैं। सभी स्त्री-पुरुषों को चाहिए कि वह नवरात्रों के इन नौ दिनों में एक बार फलाहारी भोजन करें। यदि पूरे व्रत सभव न हो सकें तो पहले और अंतिम नवरात्र को व्रत करें। आप व्रत करें अथवा नहीं, परिवार के सभी सदस्य पूजा करें और फिर पूजा के बाद ही भोजन करें। घर पर ही किसी एक निश्चित स्थान पर यह पूजा प्रतिदिन की जाती है।

पूजा की विधि एवं विधान

प्रतिपदा के दिन प्रात: पूजास्थल को यदि कच्चा है तो गोबर से लीपकर और पक्का होने पर जल से धोकर शुद्ध करने के बाद वहा लकडी का रखा जाता है और घडे अथवा लोटे में जल भरकर कलश (घट) स्थापना करते हैं। घट स्थापना करके तैलभ्यंगस्नान तथा नवरात्रि व्रत का संकल्प । करके गणपति तथा मातृका पूजन करते हैं। लकड़ी के पटरे पर गेरू पानी में घोलकर नवदेवियों की आकृतियां बनाई जाती हैं। फिर नवदेवियों का अथवा सिंहवाहिनी दुर्गा का कोई चित्र या प्रतिमा भी पटरे पर या इसके पास ही दसरे पटरे पर रखते हैं। इसके बाद पीली मिट्टी की एक डली पर कलावा लपेटकर उसे गणेशजी के रूप में कलश के ऊपर रख दिया जाता है। तब गणेशजी को इसी पटरे पर रख लिया जाता है।

फिर पृथ्वी का पूजन करके घड़े में आम के हरे पत्ते, दूर्वा, पंचामृत, पंचगव्य डालकर उसके मुंह पर सूत्र बांधा जाता है। घट के पास गेहूं अथवा जो का पात्र रखकर वरुण पूजन करके भगवती का आह्वान करना चाहिए।

पूर्ण विधि-विधानपूर्वक पूजा करते समय एक पटरे पर सफेद कपड़ा बिछाकर नवग्रह पूजन और षोडश मातृका स्थापना भी की जाती है। सफेद कपड़े पर चावल की छोटी-छोटी नौ ढेरियां रखकर नवग्रहों का पूजन किया जाता है। षोडश मातृकाओं की स्थापना हेतु पटरे पर लाल कपड़ा बिछाकर चावल की सोलह ढेरियां रखी जाती हैं। इसके बाद भगवती का रूप चिंतन करते हुए ध्यान और आहवान के मंत्रों द्वारा मातेश्वरी को समीप बुलाकर भावलोक में उनके दर्शन करते हुए मंत्रों के द्वारा उनकी षोडशोपचार आराधना अथवा मानसिक उपासना करते हैं। इसके बाद मंत्र स्तवन करते हुए हवन करते हैं।

जहां तक जनसामान्य की पूजा का प्रश्न है वे भगवती का चित्र रखकर मातेश्वरी का ध्यान और गुणगान करते हुए हवन कर लेते हैं। अग्नि पर गोबर का कण्डा जलाकर एक मिट्टी के बर्तन में रखते हैं। चित्र के आगे दीपक और धूपबत्ती जलाने के बाद देवी की ज्योति अर्थात जलते हुए कण्डे पर हवन सामग्री, कपूर, धूप और घी की आहुतियां डाली जाती हैं। गुग्गुल और लौंग के दो जोड़े घी में भिगोकर विशेष आहुतियां भी दी जाती हैं। यह आहुतियां परिवार का प्रत्येक सदस्य देता है। इसके बाद भगवती की औरती और भजन गाए जाते हैं तथा दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं।

आठ या नौ दिन तक इस प्रकार प्रतिदिन पूजा करने के बाद महाष्टमी अथवा रामनवमी को पूजा करने के बाद कुमारी पूजन का भी माहात्म्य है।

का चित्र रख कमारियों की आयु 1 से 10 वर्ष तक होनी चाहिए। घर के पास प्रतिपदा के दिन नौ धान्य बोने का भी विधान है। अंत में इन नव-धान्यों की प्रसादी सिर पर चढ़ानी चाहिए।
पंचमी के दिन उद्यंग ललिता व्रत भी करना चाहिए। अष्टमी तथा नवमी महातिथि मानी जाती है। नवदुर्गा पाठ के उपरांत हवन करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

कथा

प्राचीन काल में सुरथ नामक एक राजा थे। वह मंत्रियों के ऊपर सारा राजकाज छोड़कर सुख की बंशी बजाते थे। उनकी उदासीनता से लाभ उठाकर कालान्तर में शत्रुओं ने राज्य पर आक्रमण कर दिया। राजा के विश्वासपात्र मंत्री भी लालचवश शत्रु राजा से मिल गए। जिसका परिणाम यह हआ कि राजा सुरथ को पराजय का मुंह देखना पड़ा।

वे दुखी और निराश होकर तपस्वी के वेश में वन में निवास करने लगे। वन में उनकी भेंट समाधि नामक एक वैश्य से हुई, जो अपनी स्त्री और पुत्रों के दुर्व्यवहार से अपमानित होकर वहां निवास करता था। दोनों में परस्पर परिचय हुआ। समाधि ने बताया कि वह अपनी जिन संतानों के लिए मरता-खपता रहा, वे ही अपने न हुए, लेकिन फिर भी उनके लिए मन में जो मोह है, उससे छुटकारा नहीं मिल रहा। उसे कौटुम्बिक मृगतृष्णा आकर्षित कर रही है। शांति केसे प्राप्त हो?’

इधर शांति तो राजा सुरथ को भी नहीं थी। उनके मन में अपने दुश्मनों और विश्वासघातियों को सबक सिखाने की प्रबल इच्छा थी। तदनन्तर दोनों महर्षि मेधा के आश्रम में पहुंचे। महामुनि मेधा द्वारा आने का कारण पूछने पर दोनों ने बताया-'यद्यपि हम दोनों अपने स्वजनों से अत्यंत अपमानित और तिरस्कृत होकर यहां आए हैं, फिर भी उनके प्रति हमारा मोह नहीं छूटता। इसका क्या कारण है?'

महर्षि मेधा ने उपदेश दिया-'मन शक्ति के अधीन होता है। आदिशक्ति भगवती के दो रूप हैं-विद्या और अविद्या। विद्या ज्ञान स्वरूप है तथा अविद्या अज्ञान स्वरूपा। अविद्या मोह को जननी है किंतु जो लोग भगवती को संसार का आदि कारण मानकर भक्ति करते हैं, मां भगवती उन्हें जीवन मुक्त कर देती है।'

यह सुनकर राजा सुरथ ने प्रश्न किया-'हे महर्षि! देवी कौन हैं? उनका जन्म कैसे हुआ? कृपया देवी शक्ति के बारे में विस्तार से बताइए।'

महामुनि बोले-'राजन! आप जिस देवी के विषय में प्रश्न कर रहे हैं, वह नित्यस्वरूपा तथा विश्वव्यापिनी है। उनके आविर्भाव के कई प्रकार हैं, जिसे मैं बताता है। कल्पांत के समय महाप्रलय के अवसर पर जब क्षीर-सा भगवान विष्णु शेषशय्या पर शयन कर रहे थे, तभी उनके कानों मध तथा कैटभ उत्पन्न हुए। पृथ्वी पर चरण रखते ही वे दोनों भगवान शिव के नाभि-कमल से उत्पन्न हुए ब्रह्माजी को मारने दौड़े। उनके इस भयान रूप को देखकर ब्रह्माजी ने अनुमान लगा लिया कि भगवान विष्णु के सिवाय मेरा कोई रक्षक नहीं है। किंतु विडम्बना यह थी कि भगवान सो रहे थे।
तब उन्होंने भगवान विष्णु को जगाने हेतु उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा का स्तवन किया। परिणामतः तमोगुण अधिष्ठात्री देवी योगनिदा भगवान विष्णु के नेत्र, नासिका, मुख तथा हृदय से निकलकर ब्रह्माजी के सामने खड़ी हो गई। योगनिद्रा के निकलते ही भगवान विष्णु जाग उठे। उन्हें देखकर राक्षस क्रोधित हो गए और युद्ध के लिए उनकी तरफ दौड़े। भगवान विष्णु और उन राक्षसों में पांच हजार वर्षों तक बाहुयुद्ध हुआ। अंत में दोनों। राक्षसों ने भगवान की वीरता से संतुष्ट होकर वर मांगने को कहा।

भगवान विष्णु बोले-'यदि तुम वरदान देना ही चाहते हो तो यह वर दो कि तुम दोनों की मृत्यु मेरे ही हाथों हो।' राक्षसों ने चारों ओर देखा तो योगमाया के प्रभाव से वहां उन्हें चारों ओर जल ही जल दिखाई दिया। तब राक्षस बोले-'एवमस्तु!' यह कहकर उन राक्षसों ने अपनी दानशीलता का परिचय दिया। 'किंतु हम वहां मरना चाहते हैं, जहां जल न हो। यह सुनते ही भगवान विष्णु ने उन्हें जांघ पर लिटाकर उनका वध कर दिया।'

महर्षि बोले-'अब ब्रह्माजी की स्तुति से उत्पन्न महामाया देवी की वीरता तथा प्रभाव का वर्णन करता हूं, ध्यानपूर्वक सुनो।

एक बार देवताओं के स्वामी इंद्र तथा दैत्यों के स्वामी महिषासुर में सौ वर्षों तक घनघोर युद्ध हुआ। इस संग्राम में देवराज इंद्र की पराजय हुई और महिषासुर इंद्रलोक का राजा बन बैठा। तब हारे हुए देवता ब्रह्माजी के नेतृत्व में भगवान शकर व विष्णुजी के पास गए तथा बड़े ही कातर भाव से अपनी पराजय और असुराक अत्याचार की बात बताई। उन्होंने महिषासर के वध के उपाय की प्रार्थना का। साथ ही अपना राज्य वापस पाने के लिए उनकी कृपा की स्तुति की। देवताओं की इस निराशापूर्ण करुण वाणी और असुरों के अत्याचार की बातें सनकर विष्णु तथा शकरजी को बहुत क्रोध आया। भगवान विष्णु.शंकर तथा देवताओं के शरारत भाषण तेज प्रकट हुआ। भगवान विष्णु के मुख तथा ब्रह्मा, शिव, इंद्र आदि क शरार से एक ज्योतिपुंज निकला, जिससे दसों दिशाएं जलने लगीं। अंत में यही तेज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया।

देवी ने सभी देवताओं से आयुध, शक्ति तथा आभूषण प्राप्त कर उच्चस्वर सं अट्टहासयक्त गगनभेदी गर्जना की। जिससे पथ्वी. पर्वत आदि डोलने लगे तथा संसार में हलचल मच गई। देवी की ऐसी गर्जना सुनकर कोधित महिषासुर दैत्य सेना का व्यूह बनाकर इस सिंहनाद की ओर दौड़ा। उसने देखा, देवी की प्रभा से तीनों लोक आलोकित हो रहे हैं। महिषासुर ने अपना समस्त बल, छल-छद्म लगा दिया परंतु देवी के सामने उसकी एक न चली। अंत में वह देवी के हाथों मारा गया। आगे चलकर यही देवी शम्भ तथा निशम्भ नामक असुरों का वध करने के लिए गौरी देवी के शरीर से उत्पन्न हुई।

उस समय देवी हिमालय पर विचर रही थी। जब शम्भ-निशम्भ के सेवकों ने उस परम मनोहर रूप धारण करने वाली भगवती को देखकर अपने स्वामी के सम्मुख जाकर कहा-'महाराज! दुनिया के सारे रत्न आपके अधिकार में हैं। वे सब आपके यहां शोभा पाते हैं। ऐसे ही एक स्त्री रत्न को हमने हिमालय की पहाड़ियों में देखा है। आप हिमालय को प्रकाशित करने वाली दिव्य-कांति युक्त इस देवी का वरण कीजिए। स्त्री रत्न रूपी इस कल्याणमयी देवी का आपके अधिकार में होना जरूरी है।'

यह सुनकर दैत्यराज शुम्भ ने भगवती के पास विवाह प्रस्ताव भेजा। देवी ने प्रस्ताव को ठुकराकर कहा-'जो मुझसे युद्ध में जीत जाएगा, मैं उसी का वरण करूंगी।'

यह सुनकर शुम्भ क्रोधित हो गया और उसने अपने सेनापति धूमलोचन को भगवती को पकड़ लाने का आदेश दिया। देवी ने अपनी हुंकार से उसे भस्म कर दिया और देवी के वाहन सिंह ने उसके साथ आए अन्य दैत्यों को चीर-फाड़कर मौत के घाट उतार दिया। तत्पश्चात इसी उद्देश्य से चण्ड और मुण्ड देवी के पास गए। चण्ड और मुण्ड अपने साथ विशाल सेना लेकर देवी से युद्ध को चले। दैत्यों की सेना को देख देवी विकराल रूप धारण करके उन पर टूट पड़ी। कुछ ही क्षणों में देवी ने उस असुर सैन्य दल को रौंद डाला और 'हूँ' शब्द के साथ ही देवी ने चण्ड और मुण्ड को भी मौत के घाट उतार दिया।

जब समस्त दैत्य सेना और चण्ड-मुण्ड के संहार का समाचार दैत्यराज शुम्भ को मिला तो उसे अत्यधिक क्रोध आया। उसने शेष बची सेना को युद्धभूमि में कच करने का आदेश दिया। शम्भ की सेना को आता देख देवी ने धनुष की प्रत्यंचा से ऐसी टंकार की कि पृथ्वी और आकाश दोनों ही गूंज उठे। दव-शक्तियों से आवत्त महादेवजी ने चण्डिका को आदेश दिया कि मेरी प्रसन्नता के लिए शीघ्र ही इन दैत्यों का संहार करें। इसी बीच दैत्यों के संहार तथा सुरों रक्षा हेतु समस्त देवताओं की शक्तियां उनके शरीर से निकलकर उन्हीं के रूप में आयुधों से सजकर दैत्यों से युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गईं।

यह सुनते ही देवी के शरीर से भयानक और उग्र चण्डिका शक्ति उत्पन्न हुई, जिससे कोई न जीत सके। अपराजिता देवी ने असुरों को यह सदश भिजवाया कि यदि जीवित रहना चाहते हो तो पाताल लोक में लौट जाओ और पवताओं को उनका राज्य वापस कर दो। इंद्रादिक देवताओं को स्वर्ग और यज्ञ का भोग करने दो, अन्यथा युद्ध में मेरे द्वारा मारे जाओगे।

मगर दैत्य भला कहां मानने वाले थे। वे तो अपनी शक्ति के मद में चर। होने देवी की बात अनसनी कर दी और युद्ध को तत्पर हो उठे। देखते ही देखते पन: युद्ध छिड़ गया। किंतु देवी के समक्ष असुर कब तक ठहर सकते थे। कुछ ही क्षणों में देवी ने उनके अस्त्र-शस्त्रों को काट डाला।

जब बहुत से दैत्य काल के मुख में समा गए तो महादैत्य रक्तबीज यद्ध के लिए आगे बढ़ा। वह अपने हाथ में गदा लेकर इंद्रशक्ति से युद्ध करने लगा। देवी के प्रहारों से उस दैत्य के शरीर से रक्त बहने लगा। जहां-जहां रक्त गिरता, वहां उसी के समान पराक्रमी दैत्य पैदा हो जाता, जिनसे जगत् व्याप्त हो गया। यह देखकर देवताओं में खलबली मच गई।

देवताओं को भयभीत देखकर चण्डिका ने काली से कहा-'चामुण्डे! तुम अपना मुख फैलाओ और रणभूमि में विचरण करो। मेरे शस्त्र के प्रहार से गिरने वाले रक्त बिंदुओं तथा उनसे उत्पन्न होने वाले दैत्यों का भक्षण करती  रहो। इस प्रकार उस दैत्य का रक्त क्षीण हो जाएगा और वह स्वयं नष्ट हो जाएगा। इस प्रकार नए दैत्य भी उत्पन्न नहीं होंगे।'

इतना कहकर चण्डिका ने शूल से रक्तबीज पर प्रहार किया और काली ने मुंह फैलाकर उसका रक्त पी लिया। रक्तबीज ने क्रुद्ध होकर पूरी शक्ति से देवी पर गदा का प्रहार किया। किंतु देवी पर उसके प्रहारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। देवी को इससे कुछ भी वेदना न हुई। देखते-ही-देखते अस्त्र-शस्त्रों की बौछार से देवी ने रक्तबीज का प्राणान्त कर दिया।

रक्तबीज की मृत्यु होते ही देवताओं की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। हर्षित होकर देवता नृत्य करने लगे तथा देवी का गुणगान करने लगे।

उधर रक्तबीज की मृत्यु का समाचार पाकर शुम्भ-निशुम्भ के क्रोध की सीमा न रही। बड़े-बड़े बलशाली दैत्यों की सेना लेकर वे महाशक्ति से युद्ध करने चल दिए। महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेना सहित मातृगणों से युद्ध करने के लिए आ पहुंचा। किंतु शीघ्र ही देवी ने उन दोनों का संहार कर दिया। सभी दैत्य मारे गए। सारे संसार में शांति हो गई और देवतागण हर्षित होकर देवी की वंदना करने लगे।

इन सब उपाख्यानों को सुनाकर मेधा ऋषि ने राजा सुरथ तथा वणिक समाधि से देवी स्तवन की विधिवत व्याख्या की, जिसके प्रभाव से दोनों नदी तट पर जाकर तपस्या में लीन हो गए। तीन वर्ष बाद दुर्गाजी ने प्रगट होकर उन दोनों को आशीर्वाद दिया। इस प्रकार वणिक तो सांसारिक मोह से मुक्त होकर आत्मचिंतन में लग गया तथा राजा ने शत्रुओं को पराजित कर अपना खोया हुआ राज वैभव पुनः प्राप्त कर लिया।