पजून-पूनो व्रत 
Pujan Puno Vrat Vidhi and Katha

(चैत्र पूर्णिमा)


यह उत्सव चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन व्रत नहीं रखा जाता, बल्कि पजून-कुमार' की पूजा की जाती है। यह पजन उन्हीं घरों में होता है, जिसमें लड़के का जन्म हुआ हो। जिस घर में लडकियां ही होती हैं, वहां यह पूजन नहीं होता।

इस दिन किसी के यहां पांच और किसी के यहां सात मटकियों को पूजा जाता है। मटकियों में एक करवा भी होता है। करवे की गिनती भी मटकियों में ही की जाती है। मटकियों को चूने या खड़िया से रंगा जाता है तथा करवे पर हल्दी से 'पजून कुमार' और उनकी दोनों माताओं के चित्र बनाए जाते हैं।

फिर किसी शद्ध स्थान को गोबर से लीपकर चौक परा जाता है। तत्पश्चात चारों ओर गोलाई में मटकियां रखकर बीच में करवा रखा जाता है। सभी मटकियां भिन्न-भिन्न प्रकार के पकवानों और मिठाइयों से भरी जाती हैं तथा करवे में मोदक रखा जाता है।

तत्पश्चात धूप, दीप, चंदन, अक्षत और नैवेद्य से मटकियों तथा पजून कुमार का विधिवत पूजन करके कथा कही जाती है। एक स्त्री कथा सुनाती है और अन्य स्त्रियां हाथ में अक्षत (चावल) लेकर बैठ जाती हैं। कथा पूरी होने पर सभी स्त्रियां मटकियों पर अक्षत छोडती हैं और मटकियों को दण्डवत प्रणाम करती हैं। , इसके बाद लड़का सब मटकियों को हिला-हिलाकर उन्हीं की जगह रख देता है। इसके बाद पजून कुमार की मटकी में से लड़का लड्डू निकालकर मां की झाली में डालता है। तब मां लडके को लड्डू, पकवान आदि देती हैं और फिर घर के सब लोगों को मटकियों का पकवान प्रसाद बांटा जाता है।

कथा प्राचीन समय में वास्की नामक राजा की दो रानियां थीं। एक का नाम सिकौली तथा दूसरी का नाम रूपा था। दोनों ही रानियों के कोई संतान नहीं  थी। बड़ी रानी सिकौली, सास-ननद की प्यारी थी, जबकि छोटी राजा को प्यारी थी।

अपने प्रति सास-ननद का यह व्यवहार देखकर छोटी रानी रूपा को बहत दुख होता था। परन्तु चूंकि राजा उसका पूरा ध्यान रखते थे और बहत प्यार करते थे, इसलिए वह किसी प्रकार की चिंता नहीं करती थी। अन्य स्त्रियों की तरह उसकी भी चाह थी कि उसके भी पुत्र हो और वह मां कहलाए। किंतु बहुत समय गुजर जाने पर भी वह मां नहीं बनी।

तब एक दिन उसने बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों से पुत्रवती होने का उपाय पूछा। इस पर एक वृद्धा ने कहा-'संतान तो सास-ननद के आशीर्वाद से प्राप्त होती है। यह सुनकर छोटी रानी ने सोचा कि यह कैसे हो पाएगा, क्योंकि सास-ननद तो उससे नाराज रहती हैं।

जब छोटी रानी ने अपनी समस्या उस वृद्धा को बताई तो उसने एक उपाय बता दिया-'तुम ग्वालिन का भेष बनाकर अपनी सास-ननद के पैर छुओ, वे तुम्हें आशीर्वाद देंगी।'

रानी रूपा ने वैसा ही किया। उसकी बात मानकर दूसरे दिन ही छोटी रानी ग्वालिन का वेश बनाकर और सिर पर दूध की मटकियां रखकर सास-ननद के महल में जा पहंची। उसने अपने चेहरे पर घंघट निकाल रखा था।
महल में जैसे ही उसने सास-ननद को अपने सामने देखा, वैसे ही सिर से दूध की मटकियां उतारी और उनके पांव छू लिए। इस पर सास-ननद ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया।

आशीर्वाद के प्रभाव से छोटी रानी कुछ ही दिनों में गर्भवती हो गई। यह खबर सुनकर राजा भी खुश हुए। गर्भ रहने से छोटी रानी जितना प्रसन्न थी उससे कहीं ज्यादा वह दुखी थी कि प्रसव के समय उसकी देखभाल कौन करेगा। उसने यह बात राजा को बताई तो राजा ने कहा-'तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो। मैं तुम्हारे महल में घंटियां लगवा देता हूं। जब तुम्हें कोई कष्ट हो या प्रसव काल नजदीक हो तो तुम डोरी खींच देना। जैसे ही घंटी बजेगी, मैं तुम्हारे पास चला आऊंगा।'

कुछ समय बीत जाने पर एक दिन रानी ने राजा की किंतु डोरी खींचकर घंटी बजा दी। घंटी की आवाज सुनकर राजा दरबार छोड़कर छोटी रानी के समक्ष उपस्थित हो गया। किंतु जब उसे यह पता चला कि रानी ने केवल परीक्षा लेने के लिए घंटी बजाई है तो वह नाराज होकर राजदरबार में वापस यह कहता हुआ चला गया-'अब मैं प्रसव काल में घंटी बजाने पर भी नहीं आऊंगा।' यह सुनकर छोटी रानी को दुख हुआ।

उसने सोचा कि मैंने राजा को व्यर्थ ही परेशान किया। कछ दिनों पश्चात रानी को सचमुच ही प्रसव पीड़ा हुई तो उसने घंटी बजा किंतु इस बार राजा नहीं आया। उसने यही सोचा कि इस बार भी शायट परीक्षा लेने के लिए ही घंटी बजाई है। तब प्रसव पीड़ा से त्रस्त लाचार होकर वह ननद के पास पहुंची और अपनी समस्या बताई। उन्होंने कहा-'जिस दिन तेरे पेट में तेज दर्द हो तो तू कोने में मुंह करके ओखली पर बैठ जाना। सब ठीक हो जाएगा तथा तेरा प्रसव सुखपूर्वक हो जाएगा।'

सीधी-सादी छोटी रानी उनके छल को न समझ सकी। वह अपने महल में वापस आ गई और सब इन्तजाम करवा लिया। जब प्रसव का समय आया तो उसने वैसा ही किया। बच्चा पैदा होकर ओखली में गिर गया।

उधर सास-ननद भी इसी ताक में थीं तथा बड़ी रानी सिकौली भी उनके साथ मिली हुई थी। वे सभी तुरंत वहां आ गईं। सास-ननद ने बच्चे को निकालकर ओखली में कंकर-पत्थर भरवा दिए तथा एक दासी को बच्चा देकर कहा, इसे घूरे में फेंक आ।

कछ देर बाद रानी रूपा को होश आया तो उन्होंने कहा-'तुमने तो कंकर-पत्थर जन्मे हैं।' इसी बीच प्रसव का समाचार सुनकर राजा भी वहां आ पहुंचा। लेकिन जब पता चला कि रानी ने कंकर-पत्थर जन्मे हैं तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। लेकिन मां-बहन को वहां मौजूद देखकर और उनके द्वारा पुष्टि किए जाने पर वह चुप हो गया। परन्त उसे यह समझते देर नहीं लगी कि अवश्य ही इन्होंने कोई चालाकी की है।

जिस दिन रूपा ने बच्चे को जन्म दिया था, उस दिन चैत्र शुक्ल पूर्णिमा थी। सौभाग्यवश उस दिन जब एक कुम्हारी घूरे पर कूड़ा फेंकने आई तो नवजात बालक को वहां पडे देखा। वह नि:संतान थी, अत: उसे उठाकर अपने घर ले गई।

इस बात का उसने किसी से भी जिक्र नहीं किया, ताकि कहीं बच्चा छिन न जाए। वह बड़े लाड-प्यार से उसका पालन-पोषण करने लगी। जब बालक बाड़ा बड़ा हुआ तो कुम्हार ने उसके खेलने के लिए मिट्टी का एक घोड़ा बना दिया।

लड़का उस घोड़े को नदी के किनारे ले-जाकर, उसका मुंह पानी में डुबाकर कहता-'मिटटी के घोडे पानी पी.चे,चे,चें!'

उसा घाट पर रनिवास की स्त्रियां नहाने के लिए आती थीं। लड़के को रोज-रोज ऐसा कहते देखकर, एक दिन एक स्त्री ने सुनकर उसे फटकारा-

कुम्हार के छोकरे! तुम्हारा दिमाग खराब है क्या? क्या तुम पागल हो? कहीं मिट्टी का घोड़ा भी पानी पीता है?'
रानी के कंकर-पत्थर पैदा होने का समाचार सब जगह फैल चुका था। अतः वह लड़का भी यह जान गया था। इसलिए लड़के ने तरंत बन दिया-'सिर्फ मैं ही पागल नहीं हूं, इस संसार में सब ही लोग पागल हैं। यह रानी के गर्भ से कंकर-पत्थर पैदा हो सकते हैं तो मेरा मिट्टी का घोडा भी पानी पी सकता है।'

लडके की बात सुनकर स्त्रियां समझ गईं कि यह रानी रूपा का ही बेटा है। उन्होंने महल में लौटकर रानी सिकौली को सारा वृत्तांत कह सनाया। उन्होंने कहा तुम्हारी सौतन का लड़का तो कुम्हारे के घर पल रहा है।

तब यह सुनकर बड़ी रानी ने उसे मरवाने का षड्यंत्र रचा और मैले-कुचैले वस्त्र पहनकर कोप-भवन में लेट गई। राजा ने महल में जाकर कारण पूछा तो उसने कहा-'कुम्हार का जो लड़का है वह हमारी दासियों को चिढ़ाता है। अत: जब तक वह लड़का मौत के घाट नहीं उतार दिया जाएगा, मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगी।'

लेकिन राजा समझदार था। उसने कहा-'इस छोटे से अपराध के कारण उसको प्राण दण्ड देना उचित नहीं। फिर भी मैं उसे देश निकाला देकर इस राज्य से निकाल सकता हूं।' रानी मान गई और रानी की इच्छानुसार उस लड़के को राज्य से निकाल दिया गया।

वह दूसरे राज्य में जाकर रहने लगा। थोड़े दिनों बाद वह लड़का भेष बदलकर सुंदर वस्त्र पहनकर राजा वासुकी के दरबार में आने लगा। राजा उसे किसी दरबारी का पुत्र समझता रहा और राजमंत्री उसे राजा का संबंधी। फलत: उसे कभी संदेह की दृष्टि से नहीं देखा गया।

उसके आचरण से सब प्रसन्न तथा संतुष्ट थे। वह प्रतिदिन दरबार में बैठकर राजकाज की सारी कार्यवाही देखता और हर बात ध्यान में रखता। इस प्रकार दिन गुजरते गए और एक साल बीत गया।

अगले साल उस राजा के राज्य में वर्षा नहीं हुई। पूरा वर्ष बीत गया, राज्य में अकाल पड़ने लगा। राजपण्डितों ने राजा को सलाह दी-'यदि राजा-रानी रथ में बैल की तरह कंधा देकर चलें और चैत्र पूर्णिमा को पैदा हुआ  कोई द्विज बालक रथ को हांके तो वर्षा होने का योग बन सकता है।'

यह सुनकर राजा-रानी रथ में जुतने को तैयार हो गए। जब द्विज बालक की खोज होने लगी, तब कुम्हार के बालक ने बताया-'मेरा जन्म चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हुआ है। मेरा जन्म तो क्षत्राणी के गर्भ से हुआ लेकिन पालनपोषण नीच घर में हुआ है। मैं रथ भी हांक सकता हूं।'

यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए और रथ चलाने की तैयारियां होने लगीं। इसी बीच वह बालक रानी रूपा के पास पहुंचा और अपना परिचय देकर बोला-'मां! यदि कोई तुमसे रथ संबंधी काम करने को कहे तो तुम कह देना पहले बडी रानी रथ में जुतेंगी। इसी भांति अन्य कामों में भी तुम बडी रानी को ही आगे रखना।' रूपा ने उसकी बात मान ली।
इधर रथ चलने की तैयारी होने लगी। रानी रूपा को जगह लीपने के लिए कहा गया। रूपा ने कहा-'पहले बड़ी रानी लीप, फिर में लीपंगी।' इस तरह सनी सिकौली के लीपने के बाद रूपा ने भी जगह लीप दी।

इसी प्रकार जब रथ में कंधा देने की बारी आई तो रानी रूपा ने साफ इंकार कर दिया। उसने कहा-'पहले बड़ी रानी कंधा दे, फिर मैं दूंगी।' लाचार सिकौली को ही पहल करनी पड़ी और रथ को कंधा देना पड़ा।

रथ को कंधा देते ही तेज धूप निकल आई। बालक रूपी राजकुमार ने पहले से ही मार्ग में गोखरू के कांटे बिखेर दिए थे। रथ आगे बढ़ रहा था। रानी के पैरों में नीचे से कांटे चुभते तथा ऊपर से वह बालक (राजकुमार) कोड़े बरसाता। बड़ी रानी आगे बढ़ती रही और असहनीय कष्ट झेलती रही। परंतु इनसे उसे तभी छुटकारा मिला जब रथ निश्चित जगह पर पहुंच गया।

अब रानी रूपा की बारी थी। उसके रथ में कंधा देते ही आकाश में सावनी घटाएं छा गईं। रास्ते से गोखरू के कांटे हट गए और उनकी जगह फूल खिल गए। रानी रूपा को जरा भी कष्ट नहीं हुआ। रथ चलाने का काम पूरा होते ही वर्षा होने लगी। यह देखकर पूरे राज्य में खुशी छा गई, लोग फूले न समाए ओर खुशी से नाचने लगे।

तभी उस बालक ने रानी रूपा के पास जाकर उसके चरण छुए। अब सभी जान गए कि यही रानी रूपा का पुत्र है। राजा ने भी उसे अपना पुत्र जान गले स लगा लिया। यह समाचार पाकर सब जगह आनन्दोल्लास की  लहर दौड़ गई।

अंत में राजकुमार 'पजून कुमार' सबसे मिलने रनिवास में गया। सबसे पहले वह अपनी दादी के पास गया और कहने लगा-'दादी! हम आए, क्या तुम्हारे मन भाए?'

दादी ने उत्तर दिया-'बेटा! नाती-पोते किसे बुरे लगते हैं?' पजून कुमार बोला-'तुमने मेरे मन की बात नहीं कही। तुम्हारी बात बेकार और अधूरी है। मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम अगले जन्म में दहलीज होओगी।'

फिर वह अपनी बुआ के पास जाकर बोला-'बुआ री बुआ! हम आए, और क्या तुम्हारे मन भाए?' बुआ ने कहा-'भतीजे किसे बुरे लगते हैं?' रणामतः पजून कुमार ने बुआ को चौका लगाने वाला मिट्टी का बर्तन हो जाने का शाप दे दिया।

फिर वह अपनी सौतेली मां सिकौली के पास जाकर बोला-'मामा आए, क्या तुम्हारे मन भाए?' माता सिकौली ने उत्तर दिया-'आए सो अच्छे आए, जेठी के हो या लहरी के, हो तो लड़के ही।'राजकुमार ने कहा-'तुमने भी मेरे मन बात नहीं कही। तुमने तो रूखी बात कही है, इसलिए तुम घुघची बनोगी।' घुघची आधी काली तथा आधी लाल होती है।

अंत में पजून कुमार अपनी सगी मां रानी रूपा के पास गया और बाला-'मा! मां! हम आए, तुम्हारे मन भाए या न भाए?'

रानी रूपा बोली-'बेटा! आए-आए। हमने न पाले, न पोसे, न खिलाए,न पिलाए! हम क्या जाने कैसे आए?'

यह सुनते ही वह बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोने लगा। छोटी रानी ने उसे गोद में उठा लिया। रूपा के दूध उतर आया और मातृ भाव से विह्वल होकर उसे दूध पिलाने लगी।

यह समाचार जब राजा के पास पहुंचा, तो मारे हर्ष के गदगद हो गया। यह सब देख वह बहुत प्रसन्न हुआ और पूरे राज्य में उत्सव मनाने का आदेश दिया। गरीबों को दान दिया गया। राज्यभर में शहनाइयां बजने लगी, तोपें अपने आप छूटने लगीं। कहते हैं उसी दिन से 'पजून पूनो' व्रत उत्सव मनाया जाने लगा।