प्रदूषण की समस्या और समाधान
Pradushan ki Samasya aur Samadhan

आज मनुष्य ने इतना विकास कर लिया है कि वह अब मनुष्य से बढ़कर देवताओं की शक्तियों के समान शक्तिशाली हो गया। मनुष्य ने यह विकास और महत्व विज्ञान के द्वारा प्राप्त किया है।

विज्ञान का आविष्कार करके मनुष्य ने चारों ओर से प्रकृति परास्त को करने का कदम बढ़ा लिया है। देखते देखते प्रकृति धीरे धीरे मनुष्य की दासी बनती जा रही है। आज प्रकृति मनुष्य के अधीन बन गई है।

इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने के लिए कोई कसर छोड़ने का निश्चय कर लिया है।

जिस प्रकार मनुष्य मनुष्य का और राष्ट्र राष्ट्र का शोषण करते रहे हैं, उसी प्रकार मनुष्य प्रकृति का भी शोषण करता रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकृति में कोई गंदगी नहीं है।

प्रकृति में सब जीव-जन्तु, प्राणी तथा वनस्पति जगत परस्पर मिलकर संतुलन बनाए रहते हैं। प्रत्येक का अपना विशिष्ट कार्य है। प्रकृति में ब्रहमा, विष्णु और महेश का काम अपने स्वाभाविक रूप से बराबर चलता रहता है। जब तक मनुष्य का हस्तक्षेप नहीं होता, तब तक गंदगी होती है और रोग ही।

जब मनुष्य प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप करता है, तब प्रकृति का समतोल बिगड़ता है। इससे सारी सृष्टि का स्वास्थ्य बिगड़ा जाता है।

आज का युग वैज्ञानिक और औद्योगिक युग है। औद्योगीकरण के फलस्वरूप वायु प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ रहा है। ऊर्जा तथा उष्णता पैदा करने वाले संयंत्रों से गरमी निकलती है। यह उद्योग जितने बड़े होगें और जितना बढ़ेंगे, उतनी ज्यादा गरमी फैलाएंगे।

इसके अतिरिक्त ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए जो ईंधन प्रयोग में लाया जाता है, यह प्राय पूरी तरह नहीं जल पाता। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि धुएँ में कार्बन मोनोक्साइड काफी मात्रा में निकलती है। आज मोटर वाहनों का यातायात तेजी से बढ़ रहा है। 960 किलोमीटर की यात्रा में एक मोटर वाहन उतनी आक्सीजन का उपयोग करता है, जितनी एक आदमी को एक वर्ष में चाहिए।

दुनिया के हर अंचल में मोटर वाहनों का प्रदूषण फैलता जा रहा है। रेल का यातायात भी आशातीत रूप से बढ़ रहा है। हवाई जहाजों का चलन भी सभी देशों में हो चुका है। तेल-शोधन, चीनी मिट्टी की मिलें, चमड़ा, कागज, रबर आदि के कारखाने तेजी से बढ़ रहे हैं। रंग बार्निष, प्लास्टिक, कुम्हारी चीनी के कारखाने बढ़ते जा रहे हैं।

हर प्रकार के यंत्र बनाने के कारखाने बढ़ रहे हैं। ये सब ऊर्जा उत्पादन के लिए किसी किसी रूप में ईंधन को फूँकते हैं। ये अपने धुएँ से सारे वातावरण को दूषित करते हैं। यह प्रदूषण जहाँ पैदा होता है, वहीं पर स्थिर नहीं रहता। वायु के प्रवाह में वह सारी दुनिया में फैलता रहता है।

सन् 1968 में ब्रिटेन में लाल धूल, गिरने लगी, वह सहारा रेगिस्तान से उड़कर आई। जब उत्तरी अफ्रीका में टैंकों का युद्ध चल रहा था। तब वहाँ से धूल उड़कर कैरीबियन समुन्द्र तक पहुँच गई थी।

आजकल लोग घरों, कारखानों, मोटरों और विमानों के माध्यम से हवा, मिट्टी और पानी में अंधाधुंध दूषित पदार्थ प्रवाहित कर रहे हैं। विकास के क्रम में प्रकृति अपने लिए ऐसी परिस्थितियाँ बनाती हैं जो उसके लिए आवश्यक है। इसलिए इन व्यवस्थाओं में मनुष्य का हस्तक्षेप सब प्राणियों के लिए घातक होता है।

प्रदूषण का मुख्य खतरा इसी से है कि इससे परिस्थिति संस्थान पर दबाव पड़ता है। धनी आबादी वाले क्षेत्रों मे कार्बन मोनोक्साइड की वजह से रक्त संचार में 5-10 प्रतिशत आक्सीजन कम हो जाती है। शरीर के ऊतकों को 25 प्रतिशत आक्सीजन की आवश्यकता होती है।

आक्सीजन की तुलना में कार्बन मोनोक्साइड लाल रूधिर कोशिकाओं के साथ ज्यादा मिल जाती है। इससे यह हानि होती है कि ये कोशिकाएँ आक्सीजन को अपनी पूरी मात्रा में संभालने में असमर्थ रहती है।

लंदन में चार घंटों तक यातायात संभालने के काम पर रहने वाले पुलिस कर्मी के फेफड़ों में इतना विष भर जाता है मानो उसने 105 सिगरेटें पी ली हों।

आराम की स्थिति में मनुष्य को दस मीटर हवा की आवश्यकता होती है। कड़ी मेहनत पर उससे दस गुना ज्यादा चाहिए एक दिन में एक दिमाग को इतनी आक्सीजन की आवश्यकता होती है जितनी कि यह 17,000 हेक्टेयर वन में पैदा होती है।
  

मिट्टी में बढ़ते हुए विष से वनस्पति की निरंतर कमी और महासागरों के प्रदूषण आदि की वजह से आक्सीजन की उत्पति में कमी होती जा रही है। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष हम वायुमण्डल से अस्सी अरब टन धुआं फेंकते हैं। कारों तथा विमानों से दूषित गैस निकलती है।

मनुष्य और प्राणियों के साँस से जो कार्बन डाइआक्साइड निकलती है, वह प्रदूषण फैलाती है। कुछ वैज्ञानिकों की मान्यता है कि वातावरण के प्रदूषण वर्तमान रफतार से तीस वर्ष में जीवन मंडल जिस पर प्राणी और वनस्पति निर्भर है, समाप्त हो जाएंगे।

पशु, पौधे और मनुष्यों का अस्तित्व नहीं रहेगा। सारी पृथ्वी की जलवायु बदल जाएगी। संभव है बर्फ तक पृथ्वी का वातावरण, नदियाँ और महासमुन्द्र सब विषैले हो जाएंगे।

यदि मनुष्य प्रकृति के नियमों को समझकर, प्रकृति को गुरू मानकर उसके साथ सहयोग करता है और विशेष करके सब अवशिष्टों की प्रकृति को लौटाता है तो सृष्टि और मनुष्य स्वस्थ्य रह सकते हैं नहीं तो लंबे अर्से में अणु विस्फोट के खतरे की अपेक्षा प्रकृति के कार्य में मनुष्य का कृत्रिम हस्तक्षेप कम खतरनाक नहीं है।

अतएव हमें प्रकृति के शोषण को कम करना होगा, अन्यथा हमारा जीवन पानी के बुलबुले के समान बेवजह समाप्त हो जायेगा। हमारे सारे विकास कार्य ज्यों के त्यों पड़े रह जायेंगे।


निबंध नंबर : 02

प्रदूषण की समस्या
Pradushan ki Samasya


प्रदूषण की विकराल होती समस्या ने आधुनिक जन-जीवन को संकट में डाल दिया है। स्थानीय संगठनों व व्यक्तियों से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ (U.N.O) तक इस समस्या से चितित है। प्रदूषण महात्रासदी का रूप धारण कर चुका है। वायु, जल, भोजन तथा घ्दनि का प्रदूषण विश्व के नगरों और बड़े कस्बों में अपनी विकराल शक्तियों व सीमाओं का प्रदर्शन कर रहा है। देश की राजधानी दिल्ली दुनिया का तीसरा सर्वाधिक प्रदूषित नगर है। प्रदूषण के चलते हमारे वन, जीव-जन्तु और जीवाणु संसार के छोटे-छोटे नागरिक भी इस त्रासदी के शिकार बनते जा रहे हैं।
वायु में प्रदूषण कारखानों, वाहनों और घरों के चूल्हों से फैलता है। यह प्रदूषण मानद-जीवन के लिए बड़ा खतरा बन चुका है। इसके कारण नगरों में रहने वाले लोग फेफड़ों के कैंसर, दमा, आंखों के रोगों और चर्मरोगों के शिकार बनते जा रहे हैं। पूरे भारत की नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं। गंगा एक दूषित जलधारा बन गई है और अन्य मुख्य नदियों का भी यही हाल है। दूषित जल पीने व नहाने के काम आता है और फलस्वरूप हैजा, वाईरल बुखार, आंत्रशोध व अमीबियोंसिस जैसे भंयकर रोग मानव को जकड़ लेते हैं। विषाक्त जल भोजन को भी दुषित करता है। इसके अलावा भोजन, हवा, खादों व रसायनों की वजह से भी दूषित हो रहा है। पूर्व की एक घटना में दिल्ली में 35 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई क्योंकि उन्होंने सरसों के तेल का सेवन किया था जिसमें आर्गेमोन की मिलावट थी।

ध्वनि प्रदूषण का सबसे अधिक प्रकोप शहरों व मख्य राजमार्गों पर नजर आता है। अधिक शोर की वजह से हजारों व्यक्ति अपनी श्रवण शक्ति खो बैठे हैं या कम सुनने लगे हैं। उच्च शोर के स्तरों से दिमागी बीमारियां और उच्च रक्तचाप हो सकते हैं। व्यक्ति अपना संतुलन भी खो सकता है।
प्रदूषण को रोकने के कई उपाय किये गये हैं। कारखानों को नगरों के बाहर विस्थापित किया गया है। आठ वर्षों से पुराने व्यापारिक वाहनों के चलाने पर रोक लगा दी गई है। दुपहिया वाहनों, तिपहिया वाहनों व मोटरकारों तथा ट्रकों के प्रदूषण स्तरों की नियमित जांच हो रही है। वातावरण को शुद्ध रखने के लिए वृक्षारोपण अभियान समय-समय पर आयोजित होते हैं। ये प्रयास सराहनीय हैं परन्तु अभी हमें बहुत कुछ करना है। विद्युत चालित वाहनों और सूर्य की ऊर्जा पर अधिक निर्भर करना होगा। यह प्रवृत्ति विश्वभर के लोगों द्वारा अपनायी जानी चाहिए। सरकारें, संयुक्त राष्ट्र संघ और गैर-सरकारी संस्थान इस विषय में काफी कार्य कर रहे हैं परन्तु कड़े निर्णयों की आवश्यकता है नहीं तो हमारा उपग्रह मानव जाति, वनस्पतियों एवं जीवों को सम्बल नहीं दे पायेगा।


निबंध नंबर : 03

प्रदूषण की समस्या 
Pradushan ki Samasya 


संकेत बिंदु- भूमिका -विकट समस्या -कारण -निवारण 

आज प्रदूषण की समस्या अत्यंत विकराल होती जा रही है। अब हमें शुद्ध वायु तक उपलब्ध नहीं है। वैज्ञानिक आविष्कारों और बदलते हए औद्योगीकरण के फलस्वरूप वायु सर्वाधिक दूषित और विषैली हो चली है। बेशुमार धुओं उगलते कल-कारखाने, सड़कों पर पेट्राल और डीजल का विशाल धुओं सारे पर्यावरण को रुग्ण, विषैला और निर्जीव बना रहा है। कल-कारखानों से निकलने वाले कचरे के ढेर नदी-नालों और जलाशयों के निर्मल जल को प्रदूषित और जहरीला बना रहे हैं। कचरे के बचे-खुचे ढेर से खुली भूमि पर सड़ते हुए जहरीले रसायनों और उनसे निकलने वाली विषेली गैसों से हवा, पानी और मिट्टी प्रदूषित हो रही है। अनवरत दौड़ती बसों, रेलगाड़ियों, मोटरकारों और स्कूटरों का निरंतर बढ़ता उमड़ता हुआ भारी शोर कल-कारखानों के शोर को दुगुना करता हुआ धीरे-धीरे बधिर बनाने पर तुला हुआ है। यदि इसी गति से हमारे पर्यावरण की स्थिति बद से बदतर होती गई तो मानव जीवन की समस्त आशाप्रद संभावनाएं विनष्ट हो जाएंगी। अतएव आवश्यक है कि कल-कारखानों की चिमनियों को न केवल ऊँचा उठाया जाए, बल्कि उसकी गंदगी को रोकने का प्रयास किया जाए। यातायात के साधनों से भी कम-से-कम निकले, विषैले पदार्थ और कहा-कचरा नदियों तथा जलाशयों में प्रवाहित न किया जाए। अधिकाधिक वृक्ष लगाए जाएं। हमारा पर्यावरण और उसके संरक्षण का प्राण ही हमारे लिए महत्वपूर्ण है।