प्रदूषण: एक समस्या 
Pradushan ek Samasya 

वैज्ञानिक उन्नति के इस युग में मानव ने भौतिक सुख-साधन एकत्रित करने की होड़ में अपने चारों तरफ़ के प्राकृतिक वातावरण को अत्यंत हानि पहुँचाई है। आज समस्त विश्व में प्रदूषण की समस्या व्याप्त है। इस प्रदूषण के भीषण प्रकोप से जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। प्राकृतिक असंतुलन की इस दशा ने मानव जीवन के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिहन लगा दिया

प्रदूषण शब्द का निर्माण 'प्र' तथा 'दूषण' के योग से हुआ है। इसका अर्थ है- अधिक गंदगी होना। प्रदूषण मुख्यतः चार प्रकार का होता हैवायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण व भूमि प्रदूषण। इसके अतिरिक्त वर्तमान दशक में अणु प्रदूषण भी भयंकर रूप धारण करता जा रहा है। विकसित देशों में व्यापक स्तर पर उद्योग-धंधों का प्रसार हो रहा है। इसी के कारण विभिन्न प्रकार की समस्याएँ जन्म ले रही हैं। प्राकृतिक आपदाओं, जैसे : भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट, जलप्लावन आदि के रूप में हम प्रकृति का विद्रोह प्रतिवर्ष देखते हैं। वास्तव में मानव ने प्रकृति के साथ घिनौना। खेल किया है। उसने यथाशक्ति प्रकृति को नुकसान पहुँचाया है तथा उसका यह प्रयास आज भी सतत जारी है जिसके भीषण परिणाम भी उसे ही भुगतने पड़ रहे हैं।

वायु प्रदूषण से जन साधारण के स्वास्थ्य तथा पेड़-पौधों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। गंदी हवा में साँस लेने से फेफड़ों के रोग दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। यह प्रदूषित वायु विभिन्न प्रकार के चर्म रोगों को भी जन्म देती है। लगातार चलते वाहन धुआँ छोड़ते हैं। सड़कों के समीप लगे वृक्ष श्रीहीन होते जाते हैं। यह विषैला धुआँ पेड़ों को कमजोर बनाता है तथा समय के साथ-साथ उनकी विकास प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होने लगता है। साथ ही उनके पत्ते भी पीले पड़ने लगते हैं।

शहरों में वाहन तथा कारखाने धुआँ तथा जहरीली गैस छोड़कर वाय को प्रदूषित करते हैं। सीमेंट, चूना, रोड़ी बनाने की बड़ी-बड़ी मशीनें कई सौ मीटर की दूरी तक की वायु को धूल युक्त कर देती हैं। साबुन, चीनी, कपड़ा, चमड़ा, तेल आदि बनाने वाले कारखाने एक ओर तो वायु को दुर्गंध। युक्त करते हैं, साथ ही उनकी चिमनियाँ लगातार धुआँ छोड़कर वायु को प्रदूषित भी करती रहती हैं।

वर्तमान सदी के पहले के कुछ दशकों से ही कारखाने पनपने लगे थे। परंतु उस समय देश में सघन वन प्रदेश थे। नगरों में भी आबादी कम थी। तथा वहाँ हरे-भरे वृक्ष थे जो इस प्रदूषण को दूर करते रहते थे। वाय को शुद्ध बनाने की प्रक्रिया यों तो प्राकृतिक रूप से होती रहती है, परंतु अब वृक्षों की संख्या न्यूनतम है तथा सघन वन क्षेत्र भी बहुत कम रह गए हैं। यही कारण है कि जिस अनुपात में प्रदूषण बढ़ रहा है, उस अनुपात में वृक्ष प्राय: शून्यमात्र ही हैं और वायु दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होती जा रही। है। आकाश स्वच्छ व नीला कम ही दिखाई देता है। नगरों में शाम होतेहोते चारों तरफ़ धुआँ, धुंध की भाँति व्याप्त हो जाता है।

बढ़ते वाहन तथा कारखानों की संख्या से ध्वनि प्रदूषण भी होता है। हर समय वाहनों की पों-पों, कारखानों का स्वर, हवाई जहाजों का तेज़ गर्जन, रेलगाड़ियों के स्वर और लाउडस्पीकर, रेडियो, टेलीविज़न का शोर सब ओर व्याप्त रहता है। तेज़ शोर लगातार सुनने से रक्तचाप बढ़ जाता । है, मन तनावयुक्त हो जाता है तथा अनेक प्रकार के कानों के रोग हो जाते । हैं जो श्रवण शक्ति का भी नाश करते हैं।

वायु और जल मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। स्वच्छ जल के अभाव में मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आबादी का विस्तार से यत्र-तत्र कूड़ा-कचरा फैला रहता है। नगरों-गाँवों का सब प्रदूषित जल नदियों, तालाबों में बहा दिया जाता है। यह कचरा व गंदगी जल व थल दोनों को प्रदूषित करते हैं। कारखानों से निकलने वाली राख व मलबा जहाँ मिट्टी को विषेला, बंजर व गंदा बनाता है, वहाँ ये गंदगी पेयजल स्रोतों को भी मलिन करती है।


गांवों में लोग नदी, तालाब व पेयजल स्रोतों के पास ही मल-मत्र विसर्जन करते हैं। पशु भी इन्हीं जल स्रोतों का प्रयोग करते हैं। कपडे व बरतन धोने का काम भी यहीं किया जाता है। नदियों में शव विसर्जन कर दिए जाने से भी जल प्रदूषित हो जाता है। देशभर की समस्त नदियाँ अपना अस्तित्व ही खोती जा रही है। बढ़ती आबादी और प्राकृतिक साधनों के अनुचित प्रयोग से नादियों का जलस्तर भी बहुत घट गया है। तटों से कई मीटर दूर तक भूमि सूखी पड़ी दिखाई देती है। बड़ी-बड़ी नदियाँ भी नालों-सी दिखाई पड़ती है।

यत्र-तत्र व्याप्त गंदगी से उत्पन्न कीटाणुओं व विभिन्न कीट-पंतगों को मारने के लिए खेतों व नगरों में विभिन्न रसायनों का छिड़काव किया जाता है। खेती में उपज बढ़ाने के लिए भी विभिन्न उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। ये उर्वरक उत्पाद को तो बढ़ाते हैं, परंतु रासायनिक तत्व भूमि को हानि भी पहुंचाते हैं। कीटनाशी दवाइयाँ वनस्पतियों व भूमि को भी प्रदूषित जल व भूमि वनस्पति व जीव दोनों के लिए हानिकारक हैं। वर्तमान युग में अणु शक्ति के लिए विभिन्न परमाणु परीक्षण किए जाते. हैं जो भूमि के लिए काफी हानिकारक है। यह आणविक प्रदूषण वनस्पति व मानव जगत दोनों के विनाश का कारण है। इनसे उत्पन्न जहरीली गैसों। का दुभाव आज भी जापानी भोग रहे हैं। उद्योग-धंधों की जहरीली गैसों के शिकार हजारों भोपालवासी, पर्वतस्खलन व भूकंप के शिकार हजारों उत्तरांचलवासी हर वर्ष आती भीषण बाढों के शिकार समस्त देशवासी इन। प्राकृतिक प्रकोपों की प्रताड़ना को आज जानने व समझने लगे हैं।

प्रदूषण को नियंत्रित किए बिना मानव जीवन सुरक्षित नहीं है। प्रकृति अपत साथ किए गए इन उपहासों का भीषण दंड देती है. यह बात आज विश्वस्तर पर स्वीकार की जा रही है। प्रदूषण को रोकने के लिए। अपनी जीवन प्रणाली व विचारधारा में परिवर्तन लाना होगा। प्रदूषण नियंत्रण की दिशा में सजगता व जागरूकता ही प्रथम प्रयास है।

हर स्तर पर अधिकाधिक वृक्षारोपण किए जाने की आवश्यकता है। गंदगी विसर्जन के लिए हमें अन्य विकल्प ढूँढ़ने होंगे। प्राचीन काल में प्रकृति की अराधना की जाती थी, आज भी इसी भावना की आवश्यकता है। जल स्रोतों को पावन स्थल समझना, वृक्षारोपण करना, उनकी देखभाल आदि कुछ कदम उठाकर न केवल हम पुनः धरती को हरा-भरा बना सकते हैं अपितु अपने भविष्य पर लगे प्रश्न चिह्न को भी मिटा सकते हैं।