सपने में नौका विहार
Sapne me Nauka Vihar
दर-दूर तक जल ही जल दिखाई दे रहा था। मैं और मेरे मित्र रात्रि के समय भ्रमण के लिए निकल पड़े। शीतल वायु चल रही थी। शांत चाँदनी रात में हम सब मित्र काफ़ी दूर निकल गए थे। यहाँ तट पर कुछ नौकाएँ बंधी हुई थीं। हम सबका मन हुआ कि क्यों न नौका विहार किया जाए!
हमने जोर-जोर से नाविक को पुकारा। लेकिन कोई उत्तर न आने पर मेरे मित्रों को जोश आ गया। उनमें से एक ने नौका को खोला और हम सबसे बैठने का आग्रह किया। सब ठीक से बैठे भी न थे कि मित्र ने नौका का लंगर छोड़ दिया। डगमगाती हुई नाव जल-तरंगों पर थिरकने लगी। गंगा की लहरों के साथ हम सबके हृदय भी हिलोरें लेने लगे।
सबने 'जय गंगा मैया' पुकारा और नाव जलधारा के मध्य पहुँच गई। चारों तरफ़ शांत वातावरण था। चंद्रमा की किरणें जल पर पड़ रही थीं। चारों तरफ़ चाँदनी का साम्राज्य था। इस सुहावने दृश्य को देखकर कुछ लड़के गाने लगे। संगी की स्वरलहरी मानो क्षितिज को छू रही थी। इतने में चप्पू चलानेवाले मित्र ने कहा, "बस भई, मैं तो थक गया अब और नहीं होता," यह कहकर वह माथा पकड़कर बैठ गया। सब घबरा गए। नाव पानी के बीच हिल रही थी। किस तरफ़ जाएँ, क्या करें? कुछ सूझ नहीं रहा था। तभी दूसरे मित्र बोले, "अच्छा, कैसे चलाना है हमें बताओ।" एक लड़के ने चप्पू संभाला। जैसे ही उसने नाव के किनारे खड़े होकर चप्पू पर जोर लगाया कि अचानक नाव टेढ़ी हो गई। सब चीख पड़े। यदि सब संतुलन न बनाए रखते तो शायद उसी क्षण गंगा की गोद में समा गए होते।
कुछ पल सब बिना हिले-डुले बैठे रहे। दूसरे मित्र ने सावधानी से चप्पू चलाना शुरू किया। नाव ठीक से चलती ही न थी। कुछ क्षण के लिए नदी का तट, चाँदनी, उसकी शीतलता, चारों तरफ़ अंधेरे व प्रकाश का खेल भयावह प्रतीत होने लगा। सबने उस पहले मित्र को बहलाया, "अरे भई थोड़ा-सा परिश्रम करो, हम मदद करेंगे। किसी तरह नाव को तट तक पहुँचा दो।" सबके आग्रह करने पर पहले वाले मित्र ने हिम्मत जुटाई.
कुछ मछलियाँ बार-बार नाव के पास आकर अपना मुँह जल से निकालती थीं। उस क्षण लगता मानो ये सब हमारी स्थिति पर हमें चिढ़ा रही हो। मित्र ने नाव का मुख मोड़ा और त्वरित गति से तट की ओर बढ़ चला। अचानक कुछ अँधेरा-सा महसूस हुआ। कुछ बादल आसमान में आ गए थे। न जाने बादल कहाँ से आ रहे थे! कुछ ही क्षणों में वे गहनतम होते गए। हवा तेज हो गई और हम भयाकुल। एक-दो बूंद गिरी होंगी कि सब चिल्लाए, "अरे वर्षा।" "ओह! हमने यह क्या किया।" "आखिर, नाव में आने की क्या पड़ी थी।" तरह-तरह की बातें होने लगीं। सबको अपनी जान का खतरा था।
जैसे-जैसे बूंदें बढ़ती गईं, शांत गंगा का जल तेज हवा से हिलोरें लेने लगा। नाव डगमगाती हुई बढ़ने लगी। सबकी नजर तट पर और दर चमकते शहर पर थी। हमारे मित्र ने पूरा साहस बटोरा और पतवार उठाई।। नदी में उठती ऊँची-ऊंची लहरें और आकाश में दूर बिजली का चमकना व बादलों का गरजना अत्यंत भयानक लग रहा था। कुछ मिनटों पहले जो दृश्य रमणीक लग रहे थे, अब वे ही हृदय को दहला रहे थे। वर्षा तेज हो गई। अब किनारा कुछ ही दूर था। हमारा मित्र पतवार छोड़कर निढाल बैठ गया। पता नहीं, कुछ मित्र कैसे हिले कि नाव टेढ़ी हो गई। सब जल में समा गए। बचाओ, बचाओ' सभी हाथ पैर मारते हुए बचने के लिए। चीख- पुकार रहे थे। तभी किसी ने मुझे थपथपाया, "राहुल, राहुल क्या।
बात है?" मैंने आँखें खोली। देखा, मैं बिस्तर से नीचे लुढ़का पड़ा था।। जमीन पर पड़ा हुआ मैं चीखा, "अरे ! मैं कहाँ हँ ?" माँ बोली. "बेटा, तुम बिस्तर से कैसे गिर गए, कहीं चोट तो नहीं आई?" ।
आँख खुलते ही लगा कि किसी भयानक विपत्ति से बच गया। माँ को देखकर मुझे राहत महसूस हुई। ईश्वर का लाख शुक्र कि मैं बच गया। ओह! तो यह सपना था।
मैंने अपना नौका विहार का स्वप्न सबको सुनाया। तभी सारी बात सुनकर मेरी छोटी बहन बोली, "भैया, मम्मी से पूछे बिना गए थे ना, इसीलिए तुम्हारी नाव उलट गई।" सब ठहाका लगाकर हँस पड़े।










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