संगीत की यात्रा 
Sangeet ki Yatra

लहलहाती नदियों के कल-कल स्वर में जब वंशी की मधुर तान मिलती। है, रात की नीरवता में जब वीणा की झंकार गूंजती है या उमड़ते-घुमड़ते। मेघों के स्वर पर जब कोई राग अलापा जाता है तो सुनने वाला चाहे मनुष्य। हो या कोई भी प्राणी, क्षणभर को अपनी सुध-बुध खो बैठता है। यह सत्य है कि जिस प्रकार संगीत से प्रकृति का अटूट संबंध है, उसी प्रकार मानव । की कोमलतम भावनाओं से भी उसका गहन, गंभीर, स्थायी व शाश्वत नाता है। यही कारण है कि संसारभर का कोई ऐसा कोना नहीं है, जहाँ संगीत की मधुर तान न गूंजती हो।

आज से लगभग ढाई-तीन हजार वर्ष पूर्व युनानियों ने मिस्र में गाने की विद्या ग्रहण की। माना जाता है कि ईसा से लगभग 582 वर्ष पहले। जन्मे पिथागोरस ने मिस्र से संगीत शिक्षा प्राप्त कर अपने देश में संगीत, ताल आदि के नियम बनाए। कालांतर में संगीत का नाटकों व खेल-उत्सवो से भी संबंध स्थापित हुआ। चीन में भी अति प्राचीन काल से ही संगीत का प्रचलन था। कहा जाता है कि महात्मा सिग लून ने चीन में संगीत का चलन प्रारंभ किया था। उन्हें नदी के किनारे गाती हुई चिड़ियों से गाने की प्रेरणा मिली थी।

भारतीय संगीत की धारा भी प्राचीन काल से अनवरत प्रवाहित है। समय के साथ-साथ इसके बाह्य कलेवर में परिवर्तन आए, परंतु इसमें मौलिक सृजन की क्षमता आज भी सजीव है। भारतीय मनीषियों ने कलकल बहते झरनों, मंद गति से हिलते पल्लवों की मधुर मंथर ध्वनि को अनुभव किया तथा कालांतर में उसे विभिन्न आयाम प्रदान किए। यह भी माना जाता है कि भगवान शंकर ने पाँच राग रचे तथा छठे राग की रचना पार्वती जी ने की। वैदिक काल से ही भारत में गायन, वादन व नृत्य सुविकसित थे। 

ऋग्वेद में संगीत को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। स्वरबद्ध वेदों की ऋचाएँ श्रोता को मंत्रमुग्ध कर देती हैं। ऋग्वेद में चार प्रकार के बाजों का भी वर्णन है-तार वाले बाजे, चमड़ा मढ़े हुए, धातु के और फूंक कर बजाए जाने वाले बाजे सामवेद की संगीतमयता अत्यंत विलक्षण है। हजारों वर्ष बीत जाने पर भी 'सामगान' आज भी प्राचीन रूप में विद्यमान है। अथर्ववेद में ताल, स्वर के नियम बताए गए हैं। इसमें तरह-तरह के बाजों का भी वर्णन है। धीरे-धीरे नए-नए बाजे व उनके बजाने के ढंग निकलते आए। वेदों के बाद सूत्रों का समय आता है। इस युग में कर्मकांड की अधिकता थी तथा संगीत को महत्त्व प्रदान किए जाने के कारण संगीत कला की अति उन्नति हुई। उस समय संगीत का प्रयोग मनोरंजन के लिए नहीं अपितु धार्मिक कर्मकांडों व अनुष्ठानों के लिए होता था।

रामायण काल में संगीत के कला और शास्त्रीय पक्ष का विकास हो चुका था। यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों में 'सामगान' के साथ-साथ वीणा, मृदंग, वेणु, मुरज, दंदभि आदि वादयों का भी उपयोग किया जाता था। इन्हीं के साथ-साथ प्रतिदिन के क्रियाकलापों तथा उत्सवों से जडे विभिन्न । गीतों का भी समय के साथ-साथ प्रादुर्भाव होता गया। राजसभाओं में, विभिन्न उत्सवों और त्योहारों में इसका मुखरित रूप देखने को मिलता था। बौद्ध धर्म की छत्रछाया में भी संगीत पनपा। बोधिसत्व स्वयं संगीत और नृत्य कला के मर्मज्ञ थे। अनेक जातक कथाओं द्वारा विभिन्न उत्सवों में नृत्य-संगीत व वाद्य-यंत्रों की चर्चा परोक्ष रूप में मिलती है।

मौर्य काल में संगीत का अत्यंत प्रचार व प्रसार हुआ। कौटिल्य के अनुसार संगीत को राजाश्रय प्राप्त था। पतंजलि साहित्य में विस्तृत विवरण मिलता है कि राजभवन व देवालयों में संगीत व नृत्य को विशेष महत्व प्रदान किया जाता था। गुप्त राजाओं का संगीत व कला के प्रति विशेष रुझान था। तत्कालीन सिक्कों पर भी संगीतकारों व वाद्य-यंत्रों को चित्रित किया गया। उत्तर भारत के साथ-साथ दक्षिण भारत में फैले भक्ति आंदोलन ने भी संगीत के प्रसार में विशेष भूमिका निभाई। भक्त कवियों ने जनता की समझ में आनेवाले गीतों की रचना की। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की महिमा चारों ओर फैली तथा मागधी, अर्धमागधी, बाईस श्रुति, शुद्ध सप्तक, ध्रुवागीत, सामुदायिक वादन का जन-जन में प्रचार हुआ।

दक्षिण भारत में भक्ति की जो लहर उठी, वह उत्तर भारत तक जा पहुँची। उत्तर भारत के गायक कवि जयदेव रचित 'गीत गोविंद' की कष्ण लीला संबंधी रचनाएँ मधुर पदों में गाई जाने लगीं। इसके बाद भारत का परिचय मुसलिम सभ्यता से हुआ तथा फारस व अरब के संगीत का प्रभाव। भारतीय संगीत पर पड़ने लगा। चौदहवीं शताब्दी के आरंभ में अलाउददीन खिलजी दक्षिण के अनेक संगीतज्ञों को उत्तर में लाया। उसके दरबार के कवि अमीर खुसरो महान संगीतज्ञ भी थे। उन्होंने फारस और अरब के संगीत का भारतीय संगीत से अद्भुत मेल कर अनुपम संगीत की धुनों, रागों और वाद्यों का आविष्कार किया।
पंद्रहवीं शताब्दी में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की तत्कालीन समस्याओं पर विचार करने के लिए समय-समय पर गोष्ठियाँ आयोजित कीं। ध्रुवा गीति पर आधारित 'ध्रुपद' शैली के विकास में राजा। मानसिंह का विशेष योगदान रहा। बैजू बावरा, तानसेन भी इसी काल के प्रसिद्ध गायक थे। कहा जा सकता है कि मुग़ल बादशाहों के शासन काल में तकनीकी दृष्टि से संगीत का बहुमुखी विकास हुआ। तानसेन, बैजू बावरा, सुलतान हुसैन, शर्की, उस्ताद नियामत खाँ जैसे महान संगीतज्ञों का अथक प्रयासों के फलस्वरूप पनपा भारतीय संगीत अंग्रेजों के आगमन का पश्चात कुछ दशकों तक उपेक्षित रहा।

उन्नीसवीं सदी में देशभर में राष्ट्रीय आंदोलन मिलाजनताल की भावना जोर पकड़ने लगी। संगीत, नृत्य व नाटक राष्ट्रीय भावना प्रचार के माध्यम बने। कांग्रेस के जलसों में राष्ट्रीय गीत खास भूलगाम जाने लगा। भातखंडे और विष्णु दिसंबर जैसे संगीत पनि प्राण फूंकने का बीड़ा उठाया। सन 1916 में बड़ौदाल त सम्मेलन हुआ तथा तत्पश्चात अनेक गंधर्व महाविद्यालयों का हिंदुस्तानी संगीत सिखाने वाले कॉलेजों की स्थापना हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के यात संगीत नाटक अकादमी की स्थापना हुई तथा भारतीय संगीतजीक देशों में अपनी कला का प्रचार व प्रदर्शन करना आरंभ किया। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की ओर से विदेशी में सांस्कृतिक दापित कर संगीत शिक्षा देने की व्यवस्था की गई। इस प्रकार शासकीय मदत, सुगम संगीत, लोक संगीत की समृदय य सुविकसित करने की दिशा में प्रयत्न जारी हैं।

भारतीय संगीत की इस समृदय परंपरा का विकास दो विभिन्न भागों में हुआ। दक्षिण भारत में कर्नाटक संगीत तथा पूर्व, पश्चिम, सलाम भारत में हिंदुस्तानी पद्धति प्रचलित हुई। इन दोनों ही पदतियों में सात स्वर तथा बाईस सूक्ष्म नाद माने गए हैं। भारतीय संगीत में और जान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राग तथा संगीत की विशिष्ट व मथर थर रचना और समय का हिसाब ताल कहलाता है। विभिन्न प्रकार के भावों को प्रकट करने के लिए पृथक रागों का प्रयोग किया जाता है। यथा- भक्ति भाव के लिए भैरव रागा सभी प्रकार के रागों की गाने का समय निश्चित है, जैसे- वसंत ऋतु में 'वसंत' व 'बहार' तथा वर्षा में 'मैत्र' और 'मल्हार' का गाया जाना।

भारतीय शास्त्रीय संगीत के अनेक प्रकार आज भी प्रचलित हैं। इनमें ध्रुपद, धमार, खयाल आदि सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। भंगार, भवित, बासल्य, प्रेम आदि भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए भिन्न-भिन्न रागों का प्रयोग किया जाता है। खयाल में कलाकार अपनी कल्पना के अनुसार परिवर्तन कर सकता है। शास्त्रीय संगीत की अपेक्षा सुगम संगीत में भावपक्ष को प्रधानता प्रदान की जाती है। गत कुछ वर्षों में भारतीय सुगम संगीत ने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की है। इसमें भजन, गीत, गजल, कव्वाली आदि का भी समावेश हो गया है। भक्तिकाल के रामभक्ति और कृष्णभक्ति सूफी संतों - सभी की श्रेष्ठतम रचनाएँ आज भजन शैली में जन-जन में प्रसिद्ध हैं। शास्त्रीय संगीत से अपरिचित श्रोता भी भजन के माध्यम से विभिन्न रागों का रसास्वादन कर लेते हैं। प्रणय, भक्ति, करुणा, उल्लास, देशप्रेम, प्रकृति वर्णन आदि विभिन्न विषयों से युक्त गीत आज देशभर में। प्रचलित हैं।

भारतीय संगीत के क्षेत्र में लोकगीतों की अपनी विशिष्ट ही परंपरा रही। है। प्राचीन काल से ही शास्त्रीय संगीत व लोकगीतों में आदान-प्रदान होता रहा है। जनजीवन से जुड़े सभी पर्व, उत्सव, दैनिक कार्यकलाप, विवाह जन्म, कटाई-बुआई तथा प्रतिदिन की आशा-निराशा का मनोहारी रूप हमें लोकगीतों में देखने को मिलता है। गुजरात के गरबा और रास, राजस्थान के मांड, बंगाल के भटियाली, उत्तर प्रदेश के आल्हा, महाराष्ट्र के लावणी जैसे लोकगीत अत्यंत प्रचलित हैं।

संगीत चिर काल से मानव मन की अनेक भावनाओं से जुड़ा रहा है।। यही कारण है कि वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में संगीत को चिकित्सा विज्ञान से जोड़ने संबंधी अनेक अनुसंधानात्मक कार्य प्रगति पर हैं। वैज्ञानिक सतत रूप से यह जानने के लिए जुटे हैं कि किस-किस प्रकार के रोगों के लिए किस-किस प्रकार का संगीत व वादन लाभकारी सिद्ध हो सकता है। इसकी महत्ता को हमारे मनीषियों ने आज से सहस्रों वर्ष पूर्व ही जान लिया था तथा संगीत को 'नाद योग' कहा था। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि संगीत में हृदय को एकाग्रचित्त करने की अपूर्व क्षमता है।। वैज्ञानिक सिद्ध कर चुके हैं कि संगीत के प्रभावस्वरूप पश-पक्षियों का। व्यवहार बदल जाता है। अनुकूल संगीत सुनकर पौधे शीघ्र विकसित होते हैं तथा बेहतर फसल देते हैं। यही कारण है कि प्रकृति प्रदत्त प्रत्येक तत्व। स्वाभाविक मधुर संगीत से जुड़ा है।