वनभोज: एक अनुभव 
Vanbhoj-Ek Anubhav

उन दिनों हम मौसी जी के घर डलहौजी गए हुए थे। प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण यह पर्वतीय प्रदेश अत्यंत मोहक और आकर्षक है। वहाँ बिताया प्रत्येक पल हमें आज भी विचित्र आनंद प्रदान करता है।

रविवार का दिन था और हमने खजियार जाने का कार्यक्रम बनाया। मौसी जी ने खाना बनाया और डिब्बों में डाल लिया। खाना, शीतल तथा गर्म पेय, खेलकूद का सामान लेकर हम सब खुशी-खुशी गाड़ी में बैठ गए। अभी चार-पाँच किलोमीटर दूर ही गए होंगे कि दूर पहाड़ी पर हिरन दौड़ते हुए दिखाई दिए।

हमने गाड़ी रोक दी। एक हिरनी लागें मारती हुई तलहटी में ओझल हो गई। सभी पहाड़ियाँ देवदार, शीशम तथा चीड़ के लंबे-लंबे वृक्षों से भरी हुई थीं। दूर से हरी-हरी पहाड़ियाँ बहुत सुंदर लग रही थीं। बादल इन पहाड़ियों से टकराकर आगे जा रहे थे। वहाँ प्रकृति के सौंदर्य का विस्तृत भंडार था। आसमान में पक्षियों के दल अपनी लंबी उड़ान का आनंद ले रहे थे। कुछ क्षण इस दृश्य को देखने के पश्चात हम आगे बढ़े। गोल-गोल सड़क पहाड़ियों के इर्द-गिर्द लिपटे नाग-सी लगती थी। एकएक पहाड़ी पर ऊपर-नीचे जाते हम आगे बढ़ते गए।

कुछ किलोमीटर दूर गाए होंगे कि एक तेज़ आवाज़ हुई। ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। पता चला कि टायर व ट्यूब फट गए हैं। हमारे पास दूसरा पहिया नहीं था। एक बार सबके चेहरे पर निराशा झलकने लगी। अब क्या करें यह सोच ही रहे थे कि दूसरी तरफ़ से एक टैक्सी आती दिखाई दी। मौसा जी ने उसे रोका। ड्राइवर ने पहिया निकाला और उस टैक्सी में बैठकर चला गया। कुछ क्षण खड़े रहने के बाद हम बच्चे इधर-उधर टहलने लगे।

वहा पहाड़ी झरना था। उसके पास दूर-दूर तक बड़ी-बड़ी शिलाएँ थीं। चारों तरफ हरे-भरे पेड थे। हम माँ. पिता जी, मौसी जी व मौसा जी को बुला लाए। सबको यह जगह भात अच्छी लगी। ये सब आकर उस चट्टानों पर बैठ गए।

रुपये परवानों के अपर पड़ना शुरू किया। बड़े-बड़े पत्थरों को पकड़कर हम अपर पड़ते गए। जहाँ से शला निकल रहा था, हम यहीं पहुंच गए। मरने के आसपास हरी काई जमी हुई थी। फिसलन के कारण और जया-जमाकर हम आगे थर रहे थे। पानी पर्फ-सा ठंडा था। झरने के आसपास पोल छोटे-छोटे भूरे, सफेद व काले पत्थर थे। मेरी बहन ने ऐसे काफी पाथर जमा किए। आसपास की झाड़ियों में पीले-लाल फूल लगे हुए थे। हम सब बच्चों ने हेर सारे फूल जमा कर लिए। तभी हमारी नजर एक मंदर पर पड़ी। मेरी बहन शोर से चीखी।

चीख़ सुनकर नीचे से माँ की आवास आई, 'क्या हुआ?' आवास पहाड़ियों से टकराकर जोर से गूंजी। शायद बंदर भी इन आवासों से डर गया। पानी पीकर वह दूसरी तरफ छलांग लगाता हुआ अदृश्य हो गया। पानी में खेलते और चट्टानों पर कूदते हुए हमें बहुत आनंद आ रहा था। पेड़ों की छाया में हवा काफी ठंडी लग रही थी। हमारे रोंगटे खड़े हो गए।। खेलते-खेलते हमें काफ़ी भूख लग आई थी।

मौसी जी ने दरी बिछाई और हम सबको पूरी-सब्जी खाने को दी। इस सुरम्य वातावरण में इस खाने का आनंद ही निराला था। तभी मेरे छोटे भाई ने कैमरा उठाया और हम सबके चित्र खींचे। अभी सब चित्र खिंचवाने में व्यस्त ये कि एक बंदर का बच्चा आया और टोकरी से फलों का थैला उठाकर झट से पेड़ पर जा बैठा। तभी दो-तीन और बंदर भी वहाँ आ गए। हम सबने जल्दी-जल्दी सामान समेटा। बंदर का तच्चा केले को छीलकर हमें दिखा-दिखाकर खाने लगा। केला खाते ही वह जोर से छिलके को हवा में उछाल देता। मेरी छोटी बहन उसकी हरकतें देखकर बहुत खुश हो रही थी।

केले खाकर उसने थैला नीचे फेंक दिया। उसमें एक-दो आम बचे थे। शायद, पेट भर जाने के बाद उसे इनकी आवश्यकता नहीं थी। मौसी जी ने दोनों आम निकाले और पास बैठे बंदरों की तरफ लुढ़का दिए। मानो वे कुछ पाने की प्रतीक्षा में ही बैठे हों। आम लेकर वे भी कूदते-फोदते पेड़ों के झुरमुट में ओझल हो गए।

हम सब बच्चों ने फिर खेलना शुरू कर दिया। पहाड़ी इलाके में छिपने व ढूंढने का जो मजा आ रहा था, वैसा हमें इस खेल में कभी नहीं आया। मौसी जी ने सबको प्लास्टिक के गिलासों में कॉफ़ी डालकर दी। ठंडे-ठंडे मौसम में कॉफी बहुत अच्छी लग रही थी। तभी हमें गाड़ी का हॉर्न सुनाई दिया। शायद, हमारा ड्राइवर लौट आया था।

सूर्यास्त होने वाला था। आसमान कुछ लाल-सा हो गया था। घने बादलों के मध्य रोशनी की किरण सुबह से ही दिखाई नहीं दी थी। अब ठंड बढ़ने लगी थी। हमने सामान समेटा और गाड़ी की तरफ बढ़े। इस वनभोज से सुब अत्यंत प्रसन्न थे। उस क्षण का आनंद आज भी हम उस समय खींचे गए चित्रों को देखकर प्राप्त करते हैं। प्रकृति की गोद में चिताए वे क्षण हमारे लिए सुनहरी याद बन गए।