इंदिरा गांधी 

Indira Gandhi


प्रयाग के मुख्य मार्गों से जलूस निकल रहा था. इसका नेतृत्व कर रही थी-एक नन्हीं बालिका। वह खादी का कुरता,चूड़ीदार पजामा और खादर की कुर्ती पहने हुए थी. उसके पीछे चल रहे थे-सहसों बालक। आकाश में ‘भारत माता की जय' का उद्घोष गूँज रहा था। बालकों में उत्साह और जोश था। बीच-बीच में वन्देमातरम का नारा गूंजता। लंबी कतार में अनुशासनबध तरीके से चलते ये बच्चे प्रयागवासियों के कौतूहल और जिज्ञासा का कारण थे. सबके हाथों में कांग्रेसी झंडे थे तथा हृदय में साहस उल्लाह की लहरें अठखेलियाँ कर रही थी। यह थी-इंदिरा गांधी की बचपन की बनाई ‘वानर सेना’. पंडित मोती लाल नेहरू ने इस जुलूस को देखा तो बोल उठे, "वानर सेना जिंदाबाद, इंदिरा बेटी जिंदाबाद।"


बाल्यकाल से देश सेवा को समर्पित श्रीमती इंदिरा गांधी ने संपूर्ण जीवन करोड़ों भारतीयों के मर्म को पहचानने, उनकी धड़कों को सुनने तथा उनका उद्धार करने में व्यतीत किया। ऐसे महान व्यक्तित्व के कारण ही यह कहावत सिद्ध होती है कि इतिहास अपनी पुनरावृत्ति करता है। मैत्रयी, गार्गी, लक्ष्मीबाई जैसी महान नारियों को जन्म देनेवाली भारत भूमि इंदिरा जैसी उत्कृष्ट संतति पा गद्गद हो उठी। इतिहास पुकार उठा कि महान व्यक्तियों की जीवन घटनाओं के साम्य को बार-बार देखा, सुना व परखा जा सकता है।

भारत के प्रधानमंत्री पद तक पहुँचने वाली इंदिरा जी का जन्म 19 नवंबर, 1917 ई. को राष्ट्रवादी आंदोलन के तीर्थ स्थल आनंद भवन इलाहबाद के नेहरू परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम इंदु प्रियदर्शिनी था। उनके जन्म पर भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की ओर बधाई संदेश आया, "जवाहर, तुम्हारे घर में भारत की नई आत्मा ने जन्म लिया है।"


माता कमला नेहरू की अस्वस्थता, पिता जवाहरलाल नेहरू तथा पितामह मोतीलाल नेहरू के स्वराज्य आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के कारण इनकी प्रारंभिक शिक्षा सुचारू रूप से नहीं हो सकी। सन 1919 में जलियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद देश में क्षोभ और क्रांति की लहर फैली तथा ब्रिटिश शासन की जड़ें हिलनी आरंभ हो गईं। उनके परिवार के सभी सदस्य मोतीलाल नेहरू, स्वरूपरानी, जवाहरलाल, कमला नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित-सभी देश के स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्षरत थे। विदेशी आज्ञा की अवज्ञा कर सब अनेक बार जेल गए। इंदिरा जी को देशभक्ति विरासत में मिली तथा अनुशासनप्रियता, निर्भीकता, जनसेवा, आदि भावनाएँ जीवन का अंग बनती गईं।


उनकी शिक्षा की कुछ घड़ियाँ गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की छत्रछाया में शांति निकेतन में बीती। पंडित नेहरू निरंतर अपनी बेटी को जेल से पत्र लिखते। ज्ञान-विज्ञान, इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, अर्थनीति, राजनीति आदि की समदध जानकारी से परिपूर्ण ये पत्र बालिका इंदिरा के ज्ञान में। वृद्धि करते रहे। मैट्रिक के बाद इंदिरा ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन में प्रवेश किया तथा वहीं छात्रावास में रहीं। छात्राएँ शाम को घूमने जाती थीं। ये झंड गरुदेव के निवास के समीप से गुजरता था। एक दिन गुरुदेव ने देखा कि इंदिरा उनके निवास स्थान के पास से शीघ्र जाने का प्रयत्न कर रहीं हैं तो उन्होंने इंदिरा को बुलाया और बोले, "क्या तुम मुझसे डरती हो?" इंदिरा ने गंभीर भाव से उत्तर दिया, "मैं आपके कार्य में विघ्न डालना नहीं चाहती।" गुरुदेव उनकी गंभीरता व सूझबूझ से मुसकराए और बोले, "शिष्य की निकटता मेरे कार्य में विघ्न उपस्थित नहीं करती।" अब इंदिरा गुरुदेव के पास नित्य जाने लगीं। वे उन्हें काम करते, विशेष रूप से चित्रकला में व्यस्त देखकर इस अभिव्यक्ति का रसास्वादन करतीं। जब वे शांति निकेतन छोड़कर गईं तो जवाहरलाल नेहरू को रवींद्रनाथ टेगोर ने स्वयं लिखा, "हम लोगों को इंदिरा के जाने से बड़ा दुख हुआ। मैंने उसे बड़े नज़दीक से जाना। सब गुरुजन तथा छात्राएं मुक्तक से उसकी प्रशंसा करती हैं। उसमें सचमुच तुम्हारा-सा चरित्र है।"


उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से वे विदेश भी गईं। पिता के सान्निध्य में देश-विदेश की लंबी यात्राएँ कर जो विस्तृत व गहन अनुभव उन्होंने प्राप्त किए उनकी तुलना में औपचारिक उपाधियाँ सहज ही उपेक्षणीय है।


विदेश से शिक्षा ग्रहण कर वे स्वदेश लौटीं। इक्कीस वर्ष की अवस्था में वे राष्ट्रीय कांग्रेस दल की सदस्या बनीं तथा राष्ट्रव्यापी आंदोलनों के सक्रिय रूप से भाग लेने लगीं। 26 मार्च, 1942 ई. को इनका विवाह उदार, हँसमुख और राष्ट्रवादी विचारधारा के एक पारसी युवक फिरोज गांधी के साथ हुआ। देश में चल रहे 'भारत छोड़ो' आंदोलन में इंदिरा और उनके पति दोनों ने सक्रिय रूप से भाग लिया।


अंग्रेजी शासन की नीतियों का बहिष्कार करने के उद्देश्य से वे एक बार प्रयाग में बड़ा जुलूस लेकर निकलीं। पुलिस को इसकी सूचना मिली. परंतु क्रांतिकारियों के जोश में कोई कमी न हुई। जलस को हेविट रोड स्थित सिनेमा से होकर गुजरना था। जुलूस को भंग करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ सिविल गार्ड के जवान भारी संख्या में हेविट रोड पर तैनात थे। जुलूस सिनेमा के पास पहुँचा कि इंदिरा ने भाषण देना आरंभ कर दिया। तभी ब्रिटिश सैनिकों का एक ट्रक वहाँ आ पहँचा और वे आंदोलनकारियो पर टूट पड़े। भयंकर लाठी चार्ज किया गया तथा गिरफ्तारी शुरू कर दी। गई। राइफलों के कुंदों से अनेक लोग जख्मी हुए। इस तरह की अनेक घटनाएं उनके उत्साह को कम न कर पाईं। बचपन से विकसित हो रहा। देशभक्ति की भावना अब कार्यक्षेत्र में दिखने लगी।


इंदिरा जी ने अपने बचपन की घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है। कि जब वे काफ़ी छोटी थीं तो देशभर में गांधी जी का स्वदेशी आंदोलन जोरों पर था। एक दिन विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने हेतु नवयुवकों का एक बड़ा-सा जुलूस निकल रहा था। नवयुवकों ने जन-जागरण उत्पन्न कर विभिन्न मोहल्लों से असंख्य विदेशी वस्त्र जमा किए थे। लोग उत्साह से विदेशी वस्त्रों का त्याग कर रहे थे। ब्रिटिश विरोधी नारे लगाता हुआ यह जुलूस आनंद भवन पहुंचा।


नवयुवकों के जोश को देखकर समस्त नेहरू परिवार बाहर उपस्थित हुआ। कमला नेहरू ने सहर्ष विदेशी बहुमूल्य वस्त्र निकालकर नवयुवकों को देने आरंभ कर दिए। बालिका इंदिरा क्षणभर को कुछ समझ न पाई कि उनकी माता ऐसा क्यों कर रही हैं। तब माँ ने नन्ही इंदिरा को समझाया कि अंग्रेजों ने हमारे देश पर काबू कर रखा है और अब हम सबको मिलकर उन्हें देश से भगाना है अतैव यह सब करना अनिवार्य है। बात समझ में आने की देर थी कि इंदिरा भी अपने सभी विलायती वस्त्र उठा लाई और उन्हें वहाँ जलाने का आग्रह करने लगी। आनंद भवन के सामने ही विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। घर से प्राप्त शिक्षा रंग लाई।


देशभक्ति, अपूर्व साहस, सत्य की शिक्षा प्राप्त इंदिरा जी ने पति सहित तेरह माह का कारागार दंड भोगा। श्रीमती इंदिरा गांधी का दांपत्य जीवन राजीव और संजय जैसे पुत्ररत्नों को पाकर धन्य हो उठा।


15 अगस्त, 1947 को देश ने आजादी की सांस ली। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश की बागडोर संभाली। वे देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने। इंदिरा जी ने अपना जीवन जन-कल्याण के कार्यों में बिताना शुरू कर दिया। प्रकृति प्रदत्त दुखों को झेलते हुए, वैधव्य भार वहन करते हुए वे सतत देशसेवा में जुटी रहीं।


पिता के जीवनकाल में उन्होंने देश-विदेश की यात्रा कर सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहलुओं की जानकारी प्राप्त की। अनौपचारिक रूप से राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार करने की शक्ति व शिक्षा उन्हें मिलती रही। परिवार के वातावरण से उन्हें राजनीति की शिक्षा प्राप्त हुई। सन 1957 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यकारिणी की सदस्या बनीं तथा 1959 में उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष का गौरवमय पद प्राप्त हुआ। इस पर। के सभी उत्तरदायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वाह कर उन्होंने अपनी सूझबा का परिचय दिया।


इंदिरा जी एक संवेदनशील, उत्कृष्ट सामाजिक कार्यकत्री के रूप में। जनता में जानी जाने लगीं। फलतः भारतीय शिशु कल्याण परिषद की अध्यक्षा, अंतर्राष्ट्रीय शिशु कल्याण की उपाध्यक्षा तथा अन्य अनेक संस्थाओं की अध्यक्षा व संरक्षिका बनीं। सत्यपरायण, स्वभाव से ही परिश्रमी, उदार श्रीमती इंदिरा गांधी भारतीय जन-जीवन व संस्कृति में गहन रुचि रखती थीं। वे सदा जनसेवा के कार्यों में जुटी रहीं। 


सन 1964 में इनके पिता का स्वर्गवास हुआ। पहले पति का निधन और बाद में पिता का बिछोह इन्हें सहन करना पड़ा। परिवार के प्रति इनका दायित्व और भी बढ़ गया।

श्री लाल बहादुर शास्त्री के शासन काल में वे सूचना व प्रसारण मंत्री बनीं, परंतु शास्त्री जी का असामयिक निधन हो गया और देश पर संकट के बादल मंडराने लगे। 48 वर्ष की अवस्था में सन 1966 को वे देश की प्रधानमंत्री बनीं। वे न केवल कुशल राजनीतिज्ञ थीं अपित कुशल नेता भी साबित हुईं। उन्होंने देशभर का दौरा किया और जनता की आर्थिक, सामाजिक स्थिति व मनःस्थिति का विश्लेषण किया। 'गरीबी हटाओ' जैसे नारे को चरितार्थ करने के लिए उन्होंने प्रगतिशील अर्थनीति अपनाई। उन्होंने बार-बार यह घोषणा की कि उनका उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना करना है, जिसमें असमानता, शोषण और अन्याय का नाम ही न हो। प्रधानमंत्री बनने के कुछ समय के भीतर ही बैकों का राष्ट्रीयकरण तथा । प्रिवीपर्स पर रोक लगाकर उन्होंने अपने क्रांतिकारी साहस व जनकल्याण की भावना का प्रदर्शन किया।


अपने प्रधानमंत्री काल में देश को समृद्धिशाली व उन्नत करने के लिए। उन्होंने अनेक प्रशंसनीय कदम उठाए। सोवियत संघ के साथ दीर्घकालीन मैत्री संधि, शिमला समझौता, अनेक देशों के साथ व्यापारिक व सांस्कृतिक संबंध स्थापित करने और अणु परीक्षण में उनकी प्रमुख भूमिका रही। श्रीमती इंदिरा गांधी ने तृतीय एशियाई अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले का दिल्ली में आयोजन कर भारत को समृद्धि के पथ पर बढ़ाने का यल किया।  


दिल्ली में नवम् एशियाई राष्ट्र खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया। गुट निरपेक्ष राष्ट्रों का सम्मेलन बुलाया गया। इसमें 101 राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया।

राष्ट्रीय जीवन की भांति अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी उनके व्यक्तित्व ने दर्शकों को हतप्रभ कर दिया था। राष्ट्रपति ने उनके महान कार्यों की प्रशंसा करते हुए उन्हें 'भारत रत्न' की उपाधि से सम्मानित किया।


31 अक्तूबर, 1984 को उनके ही अंगरक्षकों ने उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बनाया। इंदिरा जी ने आजीवन संप्रदायवाद, जातिवाद और वर्गवाद का विरोध किया तथा धर्मनिरपेक्षता व लोकतंत्र की जड़ों को पुष्ट बनाया। उनका ओजस्वी व दीप्तिमान व्यक्तित्व भारतीयों के लिए सदा प्रेरणादायी रहेगा।