प्रकृति और मानव 
Prakriti aur Manav


'स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार, 

चकित रहता शिशु-सा नादान, 

न जाने नक्षत्रों से कौन

निमंत्रण देता मुझको मौन !' 

प्रकृति के इस मौन-निमंत्रण में आकर्षण भी है और चुनौती भी। पर्वत सागर, नदियाँ, झरने, वृक्ष-लताएँ और ऋतुओं का नित नूतन शृगार ! सूर्य, चंद्र, तारे, ग्रह-नक्षत्रों और उनका सुनहरी-रूपहली रूप-जाल ! इनके सम्मोहक, किंतु रहस्यमय आवरण की परतों खोलते-खोलते मानव पत्थर-युग से आज अंतरिक्ष-युग तक आ पहुँचा है। प्रकृति ने भी इस खेल में सहचरी बन पूरा सहयोग पा, कितु जैसा महात्मा गांधी ने कहा था-'प्रकृति मानव की हर आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है, किंतु उसके लालच की भविष्य की चिंता किए बिना मानव का जंगल काटते जाना, महासागरों को पीछे धकेलकर ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ बनाते माना, कल-कारखानों, वाहनों आदि के विषैले धुएँ से वायु को दूषित करते जाना, हानिकारक रासायनिकों एवं कूड़े-कचरों पचा आर सागरों के स्वच्छ जल में डालते जाना, प्रकति की उदारता और सहयोग का ये कैसा प्रतिदान है? मानव की इस कृतघ्नता और अत्याचार का उत्तर प्रकृति भी, बाढ़, सूखा, भूकंप और सुनामी का विकराल रूप धर कर दे रही है। भूमंडलीय बढ़त जाना, ध्रुवो की बर्फ का तेजी से पिघलते जाना प्रकति की मूक चेतावनियाँ हैं कि अब भी समय है सँभल जाओ! प्रकृति दासी बना उसका शोषण रोको! प्रदूषण पर रोक लगाओ, वृक्षारोपण करो! पुनः प्रकृति को सहचरी बनाओ! 'मुड़ो प्रकृति की ओर' क्योंकि इसी में सबका कल्याण है।