रूढियाँ: प्रगति में बाधक
Rudhiya: Pragati me Badhak


'चरैवेति-चरैवेति' की पोषक हमारी संस्कृति गंगा के सदृश अनेकानेक नई-पुरानी परंपराओं की धाराओं को अपने में समेटे निरंतर प्रवहमान है। उसने काल और परिस्थितियों के अनुसार कभी परंपराएँ गढ़ीं, तो कभी उन्हें प्रतिकूल पाकर उनका परित्याग भी किया। परदा-प्रथा, बाल-विवाह जैसी प्रथाएँ मध्ययुगीन परिस्थितियों की देन हैं, किंतु आज के वैज्ञानिक युग में उनसे चिपके रहना ऐसी ही मूर्खता है, जैसे बंदरिया अपने मृत बच्चे को चिपकाए रखकर करती है। हर समाज का यह कर्तव्य है कि समयर वह परंपराओं का आकलन और समीक्षा करता रहे। आज हमारा समाज दो भागों में बँटा दिखाई देता है। एक वह जो सुरक्षित है और प्रगतिशील विचारों का पक्षधर वर्ग है, जहाँ पुरुष और महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर दिन-पर-दिन समृद्धि की ओर बढ़ रहे हैं और दूसरा वर्ग आज भी कूपमंडूक और लकीर का फ़कीर बना बदहाल जीवन जी रहा है। यह विडंबना ही है कि एक ओर सचना और प्रौद्योगिकी में हमारे देश की गणना अग्रणी देशों में होती है, तो दूसरी ओर दुनिया के सबसे पिकडे देशों में भी हमें शामिल किया जाता है। समाज को देखें-कन्या भ्रूण हत्याएँ, दहेज-प्रथा से प्रताड़ित आत्महत्या करने को विवश बहुएँ, काशी-वृंदावन में नारकीय जीवन जीतीं विधवाएँ, हर शुभ-कार्य से दूर रखी जा रहीं विधवाएँ एवं निस्संतान औरतें विजातीय से प्रेम करने पर मृत्युदंड पाने वाले प्रेमी, अस्पृश्य मान तिरस्कृत जीवन जीने पर मजबूर हरिजन-इन सबकी बड़ी संख्या इस बात का प्रमाण है कि हमारा समाज एक स्वस्थ समाज नहीं बल्कि रूढ़ियों से ग्रस्त समाज है। दुनिया चाँद-तारों तक पहुँच गई, हम आज भी उन्हें जल चढ़ाकर पूजन करने में ही व्यस्त हैं।

'राह के रोड़े बनें जो रूढ़ियाँ, त्याग दो गलित वो नीतियाँ 

होगा तभी उत्थान सबका, नूतन-पुनीत निर्माण जग का।'