शहरों में बढ़ती असुरक्षा 
Shahro me Badhti Asuraksha


आधुनिक विकास का केंद्र शहर है। गाँवों का पिछड़ापन और विकास के साधनों के अभाव से भी शहरों का महत्त्व बढ़ा है। रोज़-रोज़ ग्रामीणों की बडी संख्या शहरों में आती है। एक ओर तेज़ी से शहरों में बढ़ती जनसंख्या तो दूसरी ओर कानून और व्यवस्था का बुरा हाल! परिणाम स्वरूप आए दिन चोरी-डकैती, लूट-पाट, हत्या-अपहरण, बलात्कार जैसे अपराध बढ़ते जा रहे ह। रही-सही कसर भ्रष्टाचार ने पूरी कर दी है। जिस पुलिस पर शहर की सरक्षा का दायित्व है अक्सर वही अपराधियों से मिली होती है। हाल तो यहाँ तक खराब है कि कई थानों में ही बेकसूर लोगों से जबरन वसूली की जाती है, उन्हें फँसाकर असली गुनहगार को छोड दिया जाता है। पहले रात में बाहर निकलने में व्यक्ति डरता था अब तो दिन दहाडे भीडभाड वाले इलाकों में चारा-डकैती, लूटपाट, अपहरण जैसे जघन्य अपराध हो जाते हैं और पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है। वह यदि हरकत में आती है तो केवल धन या पद के डर से। एक आम आदमी की सुनवाई कहीं नहीं। 'निर्भया कांड' के बाद दिल्ली जैसे बड़े शहर में हुए जन-आंदोलनों का भी कोई विशेष प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता। हम सबको इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। महिलाओं को जूडो-कराटे जैसे मार्शल आर्ट सीख कर सबल बनने के साथ मिर्च-स्प्रे जैसी चीजों का प्रयोग भी सीखना होगा। सरकार को ज़िम्मेदार बनाने के लिए सड़कों पर उतरकर आंदोलन करने होंगे। हरेक कॉलोनी या मोहल्ले में सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था करनी होगी। जन-जागति से ही हम शहरों को सुरक्षित बना सकते हैं। जब भीड़ सड़कों पर उतरती है और मीडिया में बदनामी की खबरें आती हैं तो पलिस और अपराधी दोनों पर प्रभाव पड़ता है।