ग्लोबल-वार्मिंग की समस्या
Global Warming ki Samasya
  

कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि वह दिन दूर नहीं जब धरती पर गर्मी इतनी बढ़ जाएगी कि उत्तरी-दक्षिणी ध्रुवों की बरफ़ पिघलने लगेगी और धरती जलमग्न हो जाएगी। यह प्रलय प्राकृतिक न होकर मानव-कृत प्रलय होगी। जिस तेजी से वातावरण में गर्मी बढ़ रही है वह निश्चित ही खतरे की घंटी है। कैसी विडंबना है कि एक ओर दूरियाँ मिट रही हैं- हम चाँद-तारों तक पहुँच तक पहुँच रहे हैं दूसरी ओर अपनी ही धरती पर प्राणियों के प्राण संकट में हैं। सुख-सुविधा के ज्यादा से ज्यादा साधन जुटाने की होड़ में भूल बैठे हैं कि इसके लिए किया जा रहा प्रकृति का दोहन हमारे ही विनाश की भूमि तैयार कर रहा है। एक प्रकार से हम अपने पावं पर स्वयं ही कुल्हाडी मार रहे हैं। कल-कारखानों, वाहनों, परमाणु भट्टियों से निकलने वाला विषैला धुआँ और रेडियोधर्मी किरणें पर्यावरण के जल-कणों को सोख रही हैं। रही सही कसर हम अपने जीवनदाता वन-वक्षों की अंधाधंध कटाई करके पूरी कर रहे हैं। परिणाम सामने है-कभी अनावृष्टि तो कभी अतिवृष्टि। मौसम के बदलते मिज़ाज़ को समझना असंभव होता जा रहा है। ठंडे मल्कों तक में झुलसा देने वाली गर्मी पड़ने लगी है। 1951 से 2010 की अवधि में तापमान में 1.3 से० तक की वृद्धि हो चुकी है। सर्वेक्षण एवं पूरीक्षणों से सिद्ध हुआ है कि वातावरण में ग्रीन हाउस गैस के प्रभाव का 95 प्रतिशत प्रभाव मानवजनित है और केवल 5 प्रतिशत प्रभाव ही प्राकृतिक है। धरती पर मंडरा रहे इन खतरे के बादलों को छाँटने का शीघ्रातिशीघ्र उपाय करना होगा। प्रकृति के शोषण पर रोक और उसके पोषण के उपाय करके ही हम ग्लोबल वार्मिंग की विकट समस्या से मुक्त हो सकेंगे।