अपने छोटे भाई को धैर्यवान् बनने की सलाह देते हुए। 

15, दिलशाद बाग 

नई दिल्ली 

12 फ़रवरी 2015 

प्रिय शांतायन, 

चिरंजीवी भव! मुझे कल ही पिताजी का पत्र मिला। यह जानकर प्रसन्नता हुई कि तुम पढ़ने लिखने के साथ अपनी चित्रकला की अभिरुचि को भी गंभीरता से ले रहे हो। जब मैं घर आई थी तब 'माँ' श्रृंखला के तुम्हारे बनाए दो चित्र देखे थे। जो बहुत सुंदर थे। अब तक तुम इस श्रृंखला के पंद्रह चित्र बना चुके हो और अपनी एकल प्रदर्शनी करना चाहते हो। यह खुशी की बात है। तुमने इस क्षेत्र में पिछले वर्ष ही कदम रखा है। क्या तुम्हें नहीं लगता कि अपनी एकल प्रदर्शनी करना जल्दबाजी होगी? मैंने जो दो चित्र देखे थे, वे प्रभावी थे किन्तु मुझे उनमें परिपक्वता का अभाव प्रतीत हुआ था। भैया, अभी तुम्हें बहुत सीखना है। अपन गुरु हिमांशु जी से कला की बारीकियाँ सीखो और जब वे कहें तब प्रदर्शनी की बात सोचो। धीरज का फल मीठा होता है। प्रवेश करते ही कला-जगत यदि तुम्हें नकार देगा तो भविष्य कैसे संवरेगा? 

शांतायन, तुम्हें याद होगा कि इस क्षेत्र में परे दस वर्ष अथक परिश्रम के बाद मैंने अपने कुछ चित्र कला-प्रदर्शनी में रखे थे। मैं नहा कहती कि तुम भी दस वर्ष तक प्रतीक्षा करो किंतु पहले अपनी कला में इतनी परिपक्वता, मौलिकता और प्रभाव लाओ कि तुम्हारे गुरु स्वयं तुमसे अपनी प्रदर्शनी के लिए चित्र देने के लिए कहें। जितने तुम्हारे चित्र देखे हैं उनमें मुझे मौलिकता की कमी लगी। चित्रकार तभी बड़ा या महान बनता है जब उसके चित्रों में उसकी अलग छाप होती है। एक अलग पहचान होती घय से अपनी कला-साधना में जुटे रहो। मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं। 

प्यार और आशीर्वाद सहित

तुम्हारी 

नीरजा दीदी