आरक्षण : समस्या व समाधान
Aarakshan - Samasya evm Samadhan


सरकारी नौकरियों में आरक्षण को लेकर उठा बखेड़ा जब-तब अपना सिर उठाता रहता है। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल (1989-90) में पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के बाद देश में विभिन्न स्थानों पर आरक्षण विरोधी आंदोलन हुए थे जिसमें अनेक युवकों ने आत्मदाह तक कर लिया था।

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान में दलितों के लिए आरक्षण का प्रावधान फकत 10 वर्षों के लिए किया था। 10 वर्षों की यह अवधि संविधान के लागू होने (26 जनवरी, 1950) से मानी गयी थी पर परवर्ती कांग्रेस सरकारें वोट बैंक की राजनीति के तहत इस अवधि को कालांतर में बढ़ाती रहीं। दलित वर्गों के लिए लगभग 22.5 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित किया गया था किंतु आरक्षण को लेकर उठने वाले विवाद पिछड़े वर्गों (Backward classes) को लेकर हैं।


आरक्षण को लेकर उठे विवाद की पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय यह फैसला दे चुका है कि किसी भी स्थिति में आरक्षण कुल रिक्तियों का 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। बावजूद इसके विभिन्न राजनीतिक दलों ने वोट बैंक व जातीय राजनीति की फसल को काटने के लिए विभिन्न जातियों की आबादी के अनुसार आरक्षण लागू किए जाने की वकालत की।


असल में नौकरियों में आरक्षण योग्यता व गुणवत्ता का हनन करता है। यदि दलितों और पिछड़े वर्गों के व्यक्तियों को शैक्षिक दृष्टि से उठाना ही है, तो उन्हें बेहतर शैक्षिक सुविधाएं सरकार की ओर से मुहैया करायी जानी चाहिए। दलित व पिछड़े वर्गों के छात्रों में प्रतिभा का अभाव नहीं है। जरूरत इन प्रतिभाओं को साधन उपलब्ध कराने की है। संविधानवेत्ता व प्रख्यात कानून विद् डॉ. अंबेडकर ने बगैर किसी आरक्षण के ही सफलता के सोपान तय किए थे।


असल में आरक्षण को कुछ राजनीतिक दलों ने जातीय वोट बैंक को हासिल करने का जरिया बना लिया है जिसका जीता जागता उदाहरण है कि राजनीतिक दलों ने अपनी दुकान चलाए रखने के लिए प्राइवेट सेक्टर में भी आरक्षण की मांग कर विवाद छेड़ दिया है। इसके कारण समाज के विभिन्न वर्गों के बीच रिश्तों में खटास पड़ने लगी है। आरक्षणं की समस्या का समाधान 'योग्यता' व गुणवत्ता के पैमाने को आधार बनाकर ही किया जा सकता है।