बौद्ध-धर्म का उत्थान

 Bodh Dharam ka Utthan


बौद्ध-धर्म भारतमें उत्पन्न हुआ। इसके संस्थापक गौतम बुद्धने कोसी-कुरुक्षेत्र और हिमाचल-विंध्याचलके भीतर ही विचरते हुए ४५ वर्ष तक प्रचार किया । इस धर्म के अनुयायी चिरकाल तक, महान् सम्राटोंसे लेकर साधारण जन तक, बहुत अधिकतासे सारे भारतमें फैले हुये थे। इसके भिक्षुओंके मठों और विहारोंसे देशका शायद ही कोई भाग रिक्त रहा हो। इसके विचारक और दार्शनिक हजारों वर्षोंतक अपने विचारोंसे भारतके विचारको प्रभावित करते रहे। इसके कला-विशारदोंने भारतीय कलापर अमिट छाप लगायी। इसके वास्तु-शास्त्री और प्रस्तर-शिल्पी हजारों वर्षोंतक सजीव पर्वतवक्षोंको मोमकी तरह काटकर, अजंता, एलौरा, काले, नासिक जैसे गुहा-विहारोंको बनाते रहे। इसके गंभीर मंतव्योंको अपनानेके लिये यवन और चीन जैसी समुन्नत जातियाँ लालयित रहती रहीं। इसके दार्शनिक और सदाचारके नियमोंको आरम्भसे आजतक सभी विद्वान् बड़े आदरकी दृष्टिसे देखते रहे। इसके अनुयायियोंकी संख्याके बराबर आज भी किसी दूसरे धर्मकी संख्या नहीं है ।


ऐसा प्रतापी बौद्ध धर्म अपनी मातृभूमि भारतसे कैसे लुप्त हो गया ? यह बड़ा ही महत्वपूर्ण तथा आश्चर्यकर प्रश्न है। इसी प्रश्नपर मैं यहाँ संक्षिप्त रूपसे विचार करूंगा। भारतसे बौद्ध धर्मका लोप तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दियों में हुआ। उस समयकी स्थिति जानने के लिये कुछ प्राचीन इतिहास जानना जरूरी है।


गौतम बुद्धका निर्वाण ई०पूर्व ४८३ में हुआ था। उन्होंने अपने सारे उपदेश मौखिक दिये थे; तो भी शिष्य उनके जीवन कालमें ही कंठस्थ कर लिया करते थे। यह उपदेश दो प्रकारके थे, एक साधारण-धर्म और दर्शनके विषयमें, और दूसरे भिक्षु-भिक्षुणियोके नियम । पहलेको पालीमें “धम्म” (धर्म ) कहा गया है, और दूसरेको “विनय'। बुद्धके निर्वाण (वैशाख-पूर्णिमा ) के बाद उनके प्रधान शिष्योंने ( आगे मतभेद न हो जाय, इस. लिये ) उसी वर्षमें राजगृह ( जिला पटना ) की सप्तपर्णी गुहामें एकत्रित हो, "धर्म" और "विनय'' का संगायन किया । इसीको प्रथम-संगीति कहा जाता है। इसमें महाकाश्यप भिक्षु-संघके प्रधान (संघ-स्थविर ) की हैसियतसे, धर्मके विषयमें बुद्धके चिर-अनुचर 'आनन्द' से और विनयके विषयमें बुद्ध-प्रशंसित 'उपालि'से प्रश्न पूछते थे। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि सुकर्मोंको पालिमें 'शील' कहते हैं, और स्कंध ( रूप आदि), आयतन (रूप-चक्षु-चक्षुर्विज्ञान आदि) धातु ( पृथिवी, जल आदि) आदिके सूक्ष्म दार्शनिक विचारको प्रज्ञा, दृष्टि या दर्शन कहते हैं। बुद्धके उपदेशों में शील और प्रज्ञा, दोनोंपर पूरा जोर दिया गया है। "धर्म"के लिये पालिमें दूसरा शब्द 'सुत्त' ( सूक्त, सूत्र ) या "सुत्तन्त' भी आया है। प्रथम संगीतिके स्थविर भिक्षुओंने "धर्म" और "विनय'का इस प्रकार संग्रह किया। पीछे भिन्न-भिन्न भिक्षुओंने उनको पृथक् पृथक् कंठस्थ कर, अध्ययन-अध्यापनका भार अपने ऊपर लिया। उनमें जिन्होंने “धम्म" या "सुत्त''की रक्षाका भार लिया, वह “धम्म-धर", "सुत्त-धर" या "सुत्तंतिक" ( सौत्रांतिक) कहलाये ।