रक्षा बन्धन 
Raksha Bandhan


कोई भी व्यक्ति अकेला जीवनयापन नहीं कर सकता। उसे सदा दूसरों की सहायता, स्नेह और शुभकामनाओं की आवश्यकता अनुभव होती है, इसी लिए वह समाज के साथ कोई न कोई सम्बन्ध बना कर रखता है। जहां कुछ सम्बन्ध स्वार्थों के कारण होते हैं वहां कुछ सम्बन्ध सर्वथा स्वार्थ-रहित एवं पवित्र होते हैं। भाईबहन में प्यार का नाता है, और रक्षाबन्धन उसी नाते का साकार रूप है।


सावन महीने की पूर्णिमा के दिन यह त्योहार मनाया जाता है। पुराने विश्वास के अनुसार श्रावणी पूर्णिमा को कुछ लोग ऋषि तर्पणोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ज्ञान-विज्ञान के ज्ञाता और दाता प्राचीन ऋषियों का तर्पण किया जाता है और पुराने यज्ञोपवीत के स्थान पर नया धारण किया जाता है। मुख्यतः राखी के रूप में ही इसकी प्रसिद्धि है।


पुराने समय में बहिनें घर पर ही सूत, ऊन या रेशम की राखी अपने हाथों से बनाती थीं परन्तु अब राखी से लगभग पन्द्रह दिन पहले ही दुकानों पर प्लास्टिक, चांदी, नाईलन के विविध रंगों और डिजाइनों से सजी राखियां बिकने लगती हैं। बहन के अपने हाथ से बनी राखी में जो चाव-दुलार होता था, वह इन बिकाऊ राखियों में निश्चय ही नहीं है।


जिन बहनों के भाई दूर होते हैं उन्हें रक्षाबन्धन से कुछ दिन पहले ही डाक द्वारा राखी भेज दी जाती है। वे उस दिन स्वयं राखी बाँध लेते हैं और स्नेहोपहार के रूप में कुछ रुपये अपनी बहिनों को भेज देते हैं। बहिनें चाहे कुँवारी हों या विवाहित, उन्हें इस त्योहार का अत्यन्त चाव होता है, कई बार विवाहित बहनें रक्षाबन्धन के लिए ही ससुराल से मायके आती हैं।

रक्षाबन्धन के दिन प्रात:काल ही भाई और बहिन नहा धोकर तैयार हो जाते हैं। बाज़ार से मिठाई या फल मँगवाए जाते हैं तथा रक्षाबन्धन से पूर्व कुछ भी खाया-पिया नहीं जाता। बहिन भाई को पूर्व की ओर मुँह करके बिठाती है और अत्यन्त स्नेह से उसकी दांई कलाई पर राखी बांधती है। उसके मंगल-कल्याण, और दीर्घाय की कामना करती है। भाई उसे कुछ धन एवं उपहार देता है। राखी के दिन बहिनों को दिए जाने वाला धन राखी का मूल्य नहीं है अपितु शुभकामनाओं के प्रति प्रकट किया गया धन्यवाद ही होता है। क्या छोटे क्या बड़े सभी भाइयों के हाथों में राखियां बंधी होती हैं और छोटे बच्चे तो एक दूसरे की तुलना करते हैं कि उसकी राखियां अधिक तथा बढ़िया हैं।


जिस भाई की कोई बहिन न हो या जिस बहिन का कोई भाई न हो उसके लिए यह दिन बड़ा विचित्र होता है। उनके मन में रह-रह कर अभाव कसकता है। वे पुरोहित से रक्षाबन्धन बंधवा लेते हैं। सेना में अब भी यह प्रथा है कि पंडित हर सैनिक को रक्षाबन्धन बांधता है। बहनें या भाई अपने इस अभाव की पूर्ति के लिए पड़ोस या निकटवर्ती सम्बन्धी को भाई और बहिनें मानकर राखी बांध तथा बंधवा लेते हैं। फिर भाई-बहिन का यह पवित्र नाता जीवन पर्यन्त स्थायी हो जाता है।


कुछ लोग समझते हैं कि धागे की दो तारों में क्या रखा है ? यह उनका भ्रम है। महत्ता धागों की नहीं किन्तु उनके पीछे विद्यमान भावना की होती है। इतिहास गवाह है कि राजपत रानी कर्मवती ने अपने संकट के समय और कोई सहायक न पाकर मगल शासक हुमायूँ को राखी भेजी थी और राखी के उन कच्चे धागों के स्नेहबंधन में खिंचा हुआ हुमायूँ कर्मवती की पुकार पर पहुंचा था।


रक्षाबन्धन की महत्ता पर बहुत से नाटक, कविताएं और कहानियां लिखी जा चुकी हैं। हमारी फिल्मों में भी ऐसे बहुत से गीत आते हैं जो इस त्यौहार तथा इस की महत्ता से सम्बन्ध रखते हैं । यह त्योहार शुद्ध रूप से भारतीय त्यौहार है। आर्थिक कठिनाइयों के कारण मेलों की धूमधाम ता घटता जा रही है। परन्तु रक्षाबन्धन जैसे भावात्मक त्यौहार का अब भी महत्व है। आशा है कि जब तक हमारे हृदयों में हमारी अपनी संस्कृति का प्रेम, तथा तथा भाई-बहन का पारम्परिक स्नेह बना रहेगा तब तक यह त्यौहार धूमधाम और उत्साह से मनाया जाता रहेगा।