होली
Holi


उधर शिशिर की निर्दयता समाप्त होती है और वसन्त का शुभागमन होता है तो इधर होली का मस्तीभरा त्योहार आ जाता है। माना जाता है कि होलिका प्रह्लाद की बुआ थी जिसे न जलने का वरदान मिला था। प्रह्लाद की भक्ति से तंग आकर पिता ने अपने विद्रोही बेटे को मरवाने का उपाय सोचा। आग प्रचण्ड की गई और होलिका को कहा कि वह प्रह्लाद को गोदी में लेकर अग्नि में प्रवेश कर जाए। भगवान् की महिमा से होलिका तो जल कर भस्म हो गई और प्रह्लाद अग्नि के ताप से भी अछूता रहा। इसी गाथा से होली का सम्बन्ध है। फाल्गन की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक आठ दिन होली के माने जाते हैं। होली का ज़ोर एकादशी के बाद ही होता है। पंजाब में इन्हीं दिनों में रंग खेला जाता है।

जगह-जगह लोगों की टोलियां इकट्ठी होती हैं। किसी अपरिचित का भी लिहाज़ नहीं किया जाता। कोई उस पर सूखा अबीर फेंकता है और कोई उसे रंग की पिचकारी से भिगो देता है। इस दशा में दुकानें भी बन्द हो जाती हैं। कुछ लोग रंग की जगह कूड़ा-कर्कट भी फैंकते हैं जो उचित नहीं। पूर्णिमा के दिन तो ठेलों में रंग से भरे बडे-बडे डम और पिचकारियां लेकर ढोल बजाते हुए झुंड निकलते हैं। रंग से बचने या आनाकानी करने वालों को तो खूब भिगोया जाता है। इस पर कई बार झगडे भी हो जाते हैं। होली खेलने के लिए लोग अपने मित्रों और सम्बन्धियों के यहां भी रंग लेकर जाते हैं। होली में पतंगें भी खूब उड़ाई जाती हैं।


उत्तर प्रदेश में होली का त्योहार और तरह से मनाया जाता है। अष्टमी के दिन एरंड की टहनी लाकर गाड़ दी जाती है। बच्चे हर रोज़ घरों से लकड़ी, उपले आदि मांग कर लाते हैं और उस एरंड के चारों ओर ढेर लगाते चले जाते हैं। पूर्णिमा के दिन शाम को उसे जला कर बाद में रंग खेला जाता है। डफ और ढोलक लेकर होली के गीत गाए जाते हैं जिनमें पर्याप्त गालियां और अश्लीलता होती है। इन गीतों में कबीर का नाम न जाने कैसे जुड़ गया है।


बनारस में होली पर विशेष रूप से भांग की ठण्डाई बनाई जाती है और होली पर विशेष रूप से मज़ाक भरा और कई बार अश्लील साहित्य भी इश्तहारों या छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित किया जाता है। वहां इसे बुरा नहीं माना जाता। लोग होली के मज़ाक के रूप में ही इन बातों को लेते हैं।


दिल्ली में होली के दिनों में महामूर्ख सम्मेलन का आयोजन किया जाता है, जिसमें बड़े-बड़े लोग विचित्र वेशभूषा में उपस्थित होते हैं। किसी के गले में बैंगन की माला, किसी के सिर पर जोकर वाली लम्बी टोपी, किसी के गले में लटकता हुआ टाईमपीस। इस सम्मेलन के झण्डे के रूप में उल्टा पायजामा फहराया जाता है और अन्त में लोगों को पदवियां दी जाती हैं। कछ झांकियां भी निकलती हैं।


मथुरा-वृन्दावन की होली तो सारे देश में प्रसिद्ध है। एक दिन नन्दगाँव वाले राधा के गाँव बरसाने होली खेलने जाते हैं और दूसरे दिन बरसाने वाले होली खेलने आते हैं। इसमें स्त्रियाँ खूब लाठियां बरसाती हैं और युवक सी तक नहीं करते।


होली का त्योहार प्राचीन समय से चला आ रहा है। सरदास ने और रीतिकाल के बहुत से कवियों ने इसका सुन्दर वर्णन अपनी कविताओं में किया है। उस समय होली अबीर, केसर और कुसुम्भ आदि से खेली जाती थी।आज की तरह रासायनिक रंगों से नहीं और न कोई इस बात का बुरा ही मनाता था। वास्तव में होली एक ऐसा त्योहार है जिसमें सामाजिकता, मेल-जोल का भाव भरा हुआ है। साथ ही यह तथ्य भी जुड़ा हुआ है कि हंसी मजाक आदि से मनुष्य का मन स्वस्थ और हल्का हो जाता है। हाँ, यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि मज़ाक अभद्र न हो। आजकल कपड़ा बहुत महँगा हो चुका है ; इसलिए अच्छा यही है कि अबीर का या ऐसे रंगों का प्रयोग किया जाए जो उतर जाएँ। स्याही, कोलतार आदि का प्रयोग तो त्योहार का रूप ही बिगाड़ देता है । वह हँसी मज़ाक ही क्या जो झगड़े को जन्म दे। फाल्गुन की महकभरी बयार, चारों ओर से आते हुए बसन्त के दूर रंगबिरंगे फूल, वातावरण में उड़ता हुआ अबीर, रंगे हुए हाथ, मुँह और वस्त्र और इन सब पर गूंजते हुए ठहाके तथा चमकता हुआ उल्लास-ये सब मिलकर होली को एक अत्यन्त मोहक और मादक त्योहार बना देते हैं।