राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
Rashtrapita Mahatma Gandhi
मानव जीवन को सच्चे रूप में सार्थक बनाने वाले लोगों में राष्ट्र पिता महात्मा गांधी जी का नाम सर्वप्रथम है। जनसाधारण की तरह परिस्थितियों के साथ-साथ या पीछे न चल कर गांधी जी ने परिस्थितियों को अपने विचारों के अनुकूल ढालने का प्रयत्न किया और इन्हें बहुत हद तक अपने इस कार्य में सफलता भी मिली।
पोरबन्दर रियासत के दीवान श्री कर्मचन्द जी के घर 2 अक्तूबर 1869 कोगांधी जी का जन्म हुआ। इन का नाम मोहन दास था और जाति गांधी। गुजरात का प्रथा के अनुसार पिता का नाम साथ जोड कर इनका नाम मोहन दास कर्मचन्द गांधी पड़ा।
दस वर्ष की अवस्था तक एक गुजराती पाठशाला में शिक्षा पाई। फिर अंग्रेजी स्कूल में प्रविष्ट हुए। शिक्षाकाल में ही इनका विवाह कस्तूरबा से हो गया। सत्रह वर्ष की अवस्था में इन्होंने ऐण्डेंस परीक्षा पास की। इस बीच इनके पिता जी का देहान्त हो गया। 1818 में बैरिस्टरी पास करने के लिए विलायत गए। चलने से पूर्व इनकी माता जी ने इन से तीन प्रतिज्ञाएँ करवाई : 1. शराब नहीं पीऊँगा। 2. मांस नहीं खाऊँगा। 3. पराई स्त्री को बुरी दृष्टि से नहीं देखूगा।
विलायत में रहते समय पहले तो ये पश्चिमी चमक-दमक के चक्कर में पड़े किन्तु तत्काल ही संभल गए। साहबी का स्थान सादगी ने ले लिया। 1891 में अपना लक्ष्य पूरा करके अर्थात् बैरिस्टर बन कर भारत लौट आए। यहां आकर प्रैक्टिस भी शुरू की किन्तु सत्य प्रिय होने के कारण वकील का पेशा कुछ जचा नहीं। इसी बीच अब्दुल्ला एण्ड कम्पनी के एक मुकद्दमे की पैरवी के लिए आपको दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। अफ्रीका में काले (भारतीय और अफ्रीकनों) लोगों की दर्दशा और उन पर गोरों के भयानक अत्याचार देख कर इन का हृदय हाहाकार कर उठा। काले लोगों की दशा सुधारने के लिए राजनीतिक क्षेत्र को अपना लिया। नेटाल कांग्रेस पार्टी की स्थापना की। गोरों की नीति के विरुद्ध सत्याग्रह भी किया और जेल भी काटी। इसी समय में इन पर रस्किन और टालस्टाय के विचारों का भी प्रभाव पडा। इनके आन्दोलन के कारण अंग्रेज़ों को अपनी नीति बदलनी पड़ी।
भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलने की भूमिका बन रही थी। अफ्रीका से भारत लौट कर गांधी जी ने लोक सेवा का मार्ग अपनाया। नील की खेती करने वाले किसानों को गोरों के अत्याचार से बचाया। अहमदाबाद के मजदूरों का भी नेतृत्व किया। प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की सहायता इसलिए की कि वे युद्ध की समाप्ति पर भारत को स्वाधीनता दे देंगे। युद्ध में विजयी होकर अंग्रेजों की नीयत बदल गई। स्वाधीनता की जगह भारतीयों को रोल्ट एक्ट और जल्लियां वाले बाग का गोलीकांड ही मिला। गांधी जी ने इन दोनों के विरुद्ध आवाज़ उठाई और 1920 से असहयोग आन्दोलन का बिगुल बजा दिया। इस बीच गोलमेज़ कांफ्रेंस भी हुई जो असफल रही। 1927 में साइमन कमीशन का बहिष्कार करने का फैसला हुआ। उस समय कांग्रेस की बागडोर गांधी जी के हाथों में थी। खिलाफ़त आन्दोलन ने मुस्लमानों को भी कांग्रेस के साथ मिला दिया था। 1930 में नमक कर हटवाने के लिए गांधी जी ने दंडी यात्रा की। देशभर की जेलें सत्याग्रहियों से भर आई। फलस्वरूप गांधीइर्विन समझौता हुआ।
'फूट डालो और राज्य करो' अपनी इस नीति के अनुसार अंग्रेजी सरकार हरिजनों को अलग प्रतिनिधित्व देने लगी। गांधी जी ने उपवास रख कर उनकी इस कुचाल को कुचल डाला और छिन्न भिन्न होती हुई हिन्दु जाति को बचा लिया। - गांधी जी समझ चुके थे कि जब तक अंग्रेज़ भारत में हैं तब तक भारत की प्रगति नहीं हो सकती। 1939 में भारतीय की राय जाने बिना अंग्रेजों ने भारत को अपने साथ विश्वयुद्ध में घसीट लिया। उसके विरुद्ध सभी प्रान्तों की कांग्रेसी सरकारों ने त्याग पत्र दे दिए और सत्याग्रह आरम्भ किया गया, किन्तु उस का कोई भी असर न देख गांधी जी ने 1942 में भारत छोड़ो का आन्दोलन चलाने का प्रस्ताव पास किया। इस पर अंग्रेजी सरकार ने गांधी जी और उनके साथियों को तत्काल ही जेलों में डाल कर दमन का भयानक चक्र चला दिया।
कस्तूरबा का देहान्त जेल में ही हो गया। 1944 में गांधी जी तथा अन्य नेताओं को रिहा कर दिया गया। शिमला कांफ्रेंस के निर्णयानुसार 1946 में अन्तरिम सरकार बनी किन्तु मुस्लिम लीग ने इसमें सम्मिलित होना स्वीकार न किया। नोक्षाखली में मुस्लमानों ने हिन्दुओं का कत्ले आम शुरु कर दिया। वहां शान्ति और मित्रता स्थापित करने के लिए गांधी जी गांव गांव पैदल घूमे। इधर साम्प्रदायिकता का विष दोनों दिन बढ़ता गया। आखिर बंटवारे का दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय लेना ही पड़ा। गांधी जी के नेतृत्व में असंख्य देश-भक्तों ने जो बलिदान दिए थे वे रंग लाए, परिणाम स्वरूप 15 अगस्त 1947 को भारत की परतंत्रता के बन्धन छिन्न भिन्न हो गए और तिरंगा फहरा उठा।
शरणार्थियों के काफिले उजड़ कर, बे घर बार हो कर आ रहे थे। सारे देश में विचित्र वातावरण था। मुस्लमान अत्याचार कर रहे थे किन्तु गांधी जी बुराई काजवाब बुराई से देना उचित नहीं समझते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि 30 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा में आते समय गांधी जी को नाथूराम गोडसे नामक एक सिरफिरे युवक ने अपनी गोलियों का शिकार बनाया। तीन गोलियां चली। राम, राम कहते हुए गांधी जी ने वहीं प्राण त्याग दिए।
गांधी जी इस युग में सर्वोच्च सन्त, देशभक्त और समाज सुधारक थे। वे सच्च अर्थों में मानव थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन दरिद्र-नारायण की सेवा में लगा दिया था। अत्यन्त दु:ख की बात है कि उसी दलित जनता में से एक व्यक्ति ने अपने उपाकारक के प्राण ले लिए। राजघाट पर बनी महात्मा गांधी जी की समाधि असंख्य मानवों के लिए श्रद्धा का स्थान और प्रेरणा की स्त्रोत हैं।
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