एकता
Ekta

एक होने का भाव 'एकता' कहलाता है। यदि मानव परस्पर अलग होकर कार्य तथा विचार करें, तो समाज की प्रगति सम्भव नहीं है। इसलिए उनका मन, वचन और कर्म से यथासम्भव एक होना आवश्यक है। यदि हम एकजुट होकर काम करते हैं, तो हमारी उन्नति निश्चित है; यदि हम बँटकर, बिखरकर काम करते हैं, तो हमारी अवनति ध्रुव समझिए। अँगरेजी की यह उक्ति ठीक है, 'United we stand, divided we fall'. (हम संगठित रहें, तो टिके रहेंगे; असंगठित हुए, तो गिरेंगे)।

कहा गया है, 'एकता ही बल है'-Union is strength। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। एक मामूली तिनके की क्या बिसात ! किन्तु जब वही संगठित हो जाता है, तब उससे बनी रस्सी के द्वारा बड़े-बड़े उन्मत्त गजराज भी बाँध लिये जाते हैं। एक नन्हीं बूंद की क्या हस्ती! किन्तु, बूंदों का समुदाय जब महान् नद बन जाता है, तब उसके सामने बड़े-बड़े पर्वत भी काँपने लगते हैं। एक छोटी-सी ईट हल्की चोट से भी तोड़ डाली जाती है, किन्तु जब वही मिलकर दीवार बनती है, तो बड़े-बड़े वीरों के पथ अवरुद्ध हो जाते हैं। जो चींटी छोटी और दुबली मालूम पड़ती है, वही जब एक साथ हो जाती है, तो विषधर सों को भी चट कर जाती है। अतः इन दृष्टान्तों से यह भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है कि एकता के द्वारा कोई भी असाध्य कार्य साधित किया जा सकता है।

इतिहास के पृष्ठ साक्षी हैं कि एकता के अभाव का दुष्परिणाम कितना भयानक होता रहा है। कौरव और पांडव की आपसी फूट के कारण इतना बड़ा महाभारत हुआ, जिसे सारा संसार जानता है। अनाचारी रावण भी शायद ही पराजित होता, यदि अपने ही छोटे भाई विभीषण को लात मारकर वह अपने से विलग नहीं करता। पृथ्वीराज और जयचन्द की फूट ने हमें विदेशी आक्रमणकारियों का गुलाम बनाया तथा मीरजाफर का हमसे छिटक जाना हमारी गुलामी का कारण बना। हम जब हिन्दू-मुसलमान एक रहे, तो हमने अँगरेज-जैसे राजनीति-धुरन्धरों के छक्के छुड़ाये और जब आपस में लड़ने लगे तो हमने भारतमाता की छाती के दो टुकड़े किये। मुट्ठी-भर जापानियों और जर्मनों के सामने बड़ी-बड़ी शक्तियाँ साक्षात् दंडवत करती रहीं- इसका एकमात्र कारण है, उन देशों के लोगों की दृढ़ एकता।

अतः यह आवश्यक है कि हम यदि परिवार में सुख, शान्ति, समृद्धि की त्रिवेणी लहराती हुई देखना चाहते हैं, तो परिवार के सदस्यों को एकता के दिव्य मंत्र से दीक्षित कर। घर फूटेगा, तो गवार भी लूटेगा-इसमें कोई सन्देह नहीं। यदि समाज में फूट हो, तो समाज कभी नहीं फूले फलेगा। इसी प्रकार, देशवासियों में एकता खंडित होगी, तो देश पराजित होगा। हम भाषा, सम्प्रदाय, जाति, धर्म इत्यादि के नाम पर लहते है, अपनी शक्ति का विनाश करते हैं, यह राष्ट्र को अगति के गर्त में गिरा डालेगा। अब यह आवश्यक हो गया है कि हम समय पर संसार में एकता का शंख फूके और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (सारी पृथ्वी ही कुटुम्ब है) की डोर में बंध जाय।

एकता अपने देश और समाज की रचना और उन्नति की सहायिका है। अगर हममें एकता न हो, आपसी कलह हो, तो हम उसमे ही उलझे रहेंगे, अपनी या देश की तरकी का काम नहीं कर सकेंगे और बाहरी आक्रमण के समय आत्मरक्षा के लिए भी एकजुट न हो सकेंगे। मगर एकता आत्मोन्नति या आत्मरक्षा के लिए ही होनी चाहिए. दूसरों को लूटने उन्हें दास बनाने या उनपर अत्याचार करने के लिए नहीं।

अतः यदि हम वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं जागतिक उन्नयन चाहते है, तो एकता के महामंत्र के महत्त्व को समझें। अन्य युगो में चाहे जो शक्ति काम करती रही हो, किन्तु कलियुग में तो संघ-शक्ति-एकता की शक्ति का महत्त्व सर्वोपरि है-'संघे शक्तिः कलौ युगे'। पुराने जमाने में राजा पर अपनी सुरक्षा या सामाजिक दायित्व का भार देकर व्यक्ति निश्चिन्त हो जा सकता था। मगर आज हर व्यक्ति स्वतंत्र है, वही अपना राजा है। इसीलिए आज हर व्यक्ति को खुद ही संगठित होकर सारे समाज तथा राष्ट्र की रक्षा करनी है। क्या ही अच्छा हो, यदि कठोपनिषद् के शान्तिपाठ को जन-जन अपने आचरण में उतार सके-

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु। सह वीर्य करवावहै। 

तेजस्विनावधीतुमस्तु। मा विद्विषावहै।

अर्थात हे ईश्वर| आप हम गुरु-शिष्य-दोनों की साथ-साथ सब प्रकार से रक्षा करें। हम दोनों का आप साथ-साथ समुचित रूप से पालन-पोषण करें। हम दोनों साथ-ही-साथ सब प्रकार से बल प्राप्त करें। हम दोनों की अध्ययन की हुई विद्या तेजःपूर्ण हो-कहीं किसी से हम विद्या में परास्त न हों और हम दोनों जीवन-भर परस्पर सेह-सूत्र में बंधे रहें, हमारे अन्दर परस्पर कभी द्वेष न हो।