घोड़ा 
Ghoda


मेरा आकार-विस्तार जानना चाहते हैं, रूप-रंग जानना चाहते है, तो महाकवि भवभूति के उत्तररामचरित' के चौथे अंक में ब्रह्मचारियों द्वारा यह वर्णन देखें-


पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च मूनोत्यजसं 

दीर्घग्रीवः स भवति खुरास्तस्य चत्वार एव। 

शपाण्यत्ति प्रकिरति शकृत्पिण्डकानाप्रमात्रा

न्किण्वाख्यातैव्रजति स पुन(रमेहोहि यामः।


अर्थात्, 

पीछे बड़ी पूंछ है जिसे वह निरन्तर हिलाता है। वह लम्बी गर्दनवाला है। खुर उसके चार ही है। वह कोमल घास खाता है। आम के आकार की लीद (पुरीषपिण्ड) गिराता है।

किन्तु, इतना ही मेरा पूरा परिचय कदापि नहीं है। वैदिककाल से आज तक मैंने सभ्यता के विकास में कितना योग दिया है, शायद आप नहीं जानते। वेदिक यज्ञों में अश्वमेध की महिमा कौन नहीं जानता? जब-जब किसी सम्राट ने विश्व-विजयी बनने का मोहक स्वप्न देखा तब उसने मेरे ही ललाट-पट्ट पर यह दर्पवाक्य लिखा, "जो मेरा प्रभुत्व नहीं स्वीकारते, वे ही इस अश्व का पथ रोक सकते है।" मैं उनकी दिग्विजय का प्रतीक बना। मुझ निर्बन्ध के मार्ग में भले ही अनगिन वैदेही-पुत्र, बभ्रुवाहन मिले, फिर भी मैं कभी निराश-हताश नहीं हुआ और न मालूम कितने मर्यादापुरुषोत्तमों एवं धर्मराजों के मस्तकों को मैंने विजय-तिलक से विभूषित किया। मैं भयंकर वन गिरानेवाले देवराज इन्द्र का वाहन 'उच्चैःश्रवा' अर्थात् ऊँचा सुननेवाला लगभग बहरा है, क्योंकि मैं हर युद्ध में इन्द्र को लेकर गया और इन्द्र के वन की आवाज ने मेरे कान के पर्दे फाड़ दिये। खैर, मैं सुनें या न सुनें, पर लगाम का हल्के-से-हल्का इशारा तो भाँप ही लेता हूँ।

मैं मध्यकाल की चतुर्वाहिनी-गजदल, हयदल, रथदल और पैदल-में एक अतिशक्त रणसहायक के रूप में काम करता रहा, राष्ट्रों की सुरक्षा का भार अपने सबल कन्धों पर वहन करता रहा। मेरी पीठ संयुक्ताओं की मन कामनाओं की सम्पूर्ति करती रही। कभी शेरशाह की उर्वर कल्पना ने लोगों की रंग-बिरंगी पातियों को राज्य के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचाने के लिए मेरी पीठ का सहारा लिया, कभी मैं चेतक नाम धारण कर महाराणा प्रताप का सर्वोत्तुम सखा बनकर राष्ट्र को स्वतंत्र करने की साध लिये दुर्लय पर्वतों को रौंदता रहा, कभी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तथा कुँवरसिंह का अनुचर बनकर जालिम गोरों के दाँत खटे करता रहा।

राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता, उसकी स्वतंत्रता-रक्षा एवं जीवन-स्तर-वद्धि में मैं सर्वाधिक सहायक रहा हूँ, इसलिए घोटक हूँ (घुट परिवर्तन): मैं त्वरा अर्थात् गतिशीलता में आस्था रखता है, इसलिए तुरंग, तुरंग, तुरंगम हूँ (तुरेण त्वरया गच्छति); मैं सर्वत्र व्याप्त हैं, इसलिए अश्व हूँ (अशू व्याप्तौ); मैं भारवहन करता हूँ, इसलिए वाह हूँ मैं सेना को पहुँचाता है, इसलिए सप्ति हूँ (सपति सेनायां समवेति; षप् समवाये)। इस तरह, मेरे अनेक नामों में मेरे काम की महिमा छिपी है।

सप्तसप्ति (सात घोड़ोंवाला) सूरज जब मेरे-जैसे सात घोडो द्वारा खींचे गये रथ पर निकलता है, तब समग्र संसार से अंधकार का दैत्य भागता है। सूरज की सुहावनी किरणों का उपहार पाकर पक्षिगण सरगम अलापते हैं, लता-पादप अपने प्रसूनों से इत्र का छिड़काव करते है, नर-नारी अपने कर्म-पथ पर उल्लास का राग अलापते बढ़ निकलते हैं। जब मेरी लगाम स्वयं नटनागर श्रीकृष्ण धर्म-क्षेत्र कुरुक्षेत्र में थाम लेते थे, तो अक्षौहिणी-महारथियों से घिरे हुए भी अर्जुन का मन विचलित नहीं होता था। जिस पीताम्बर की पीताम्बरी के एक स्पर्श के लिए कितनी रुक्मिणियों और सत्यभामाओं के प्राण मचलते रहे, वही पीताम्बर अपनी पीताम्बरी में चने के दाने और दूब लिये मुझे खिलाते थे और उसी पीताम्बरी से मेरे गीले मुखड़े को पोछते थे। भला, मेरे सौभाग्य से कौन ईर्ष्या नहीं करेगा? मैं युद्धभूमि का अडिग वीर उच्चैःश्रवा हूँ-गीता' में ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने मेरे प्रति अगाध प्रेम का प्रदर्शन किया है, जिसके लिए मेरा रोम-रोम उनका आभारी है।

आज भी जब भारत के राष्ट्रपति की सवारी निकलती है, तब वे किसी सजी वातानुकूलित कीमती कार पर सवार नहीं होते, वरन् मेरे द्वारा खींचे गये रथ पर आरूढ़ होते हैं।

इस वैज्ञानिक युग में बड़े-बड़े यंत्रों की शक्ति मेरी शक्ति से ही मापी जाती है। 'हॉर्स पॉवर' आप जानते हैं? क्या आपने कभी 'एलिफेण्ट पॉवर' भी सुना है? मैं श्यामकर्ण हूँ। शुभदर्शन ही नहीं, शुभकर्मा भी हूँ। कठोपनिषद् इन्द्रियों को घोड़ा बतलाती है (इन्द्रियाणि हयानाहः) और मन को लगाम (मनः प्रमहमेव च)। ऋषियों की जो मजीं। मुझे तो आप अपना एक विश्वासी सेवक ही समझिए।

अतः आप मुझे केवल तुच्छ पशु ही न समझें। मेरा अतीत जितना गौरवमय था, वर्तमान उतना ही महिमामय है; भविष्य कैसा रहेगा, इसकी भविष्यवाणी मैं कैसे करूं?