राजेन्द्र प्रसाद
Rajendra Prasad
अंगरेज-दुश्शासन के विरुद्ध रणतूर्य बज उठा। साबरमती के संत महान राजनीतिज्ञ महात्मा गाँधी ने उद्घोष किया-मुझे देश के कोने-कोने से महारथी चाहिए। जनक और याज्ञवल्क्य, गौतुम और महावीर, चाणक्य और चन्द्रगुप्त के बिहार ने कहा-सब मणिरत्नों के ऊपर मेरा यह लघुदान ! और, उसने इस राष्ट्रीय दान के रूप में राजेन्द्र को आगे बढ़ा दिया। किन्तु, आज भारत का प्रत्येक शिशु जानता है कि यह दान कितना कीमती था-सबसे अनूठा, सबसे निराला!
बिहार राज्य में भी सौभाग्यशाली है छपरा जिले की जीरादेई की वह धरती, जिसकी घूल में लोट-लोटकर बड़े हुए थे, हमारी आँखों के तारे देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद। इनकी प्रारम्भिक पढ़ाई उर्दू-फारसी के माध्यम से हुई। 1902 ई0 में ये इंट्रेन्स परीक्षा में बैठे तो कलकत्ता विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम हुए। इसके बाद इन्होंने एफ0ए0, बी0ए0, एमए तथा एम0एल0 उपाधियाँ प्राप्त की। यदि किसी भारतीय नेता के विद्यार्थी-जीवन में उसकी उत्तरपुस्तिकाओं का परीक्षण कर यह अभिशंसा की गयी हो कि परीक्षार्थी परीक्षक से अधिक योग्य है, तो वे हैं आदर्श कुशाग्रबुद्धि राजेन्द्र बाबू ही।
राजेन्द्र बाबू अपने विद्यार्थी-जीवन से ही राजनीति में भाग लेते थे। कलकत्ते में 1906 ई0 में इन्होंने छात्रों को संगठित करने के लिए 'बिहारी क्लब' स्थापित किया था।
1905-1906ई में बंग-भंग की घटना ने इन्हें बड़ा पीड़ित किया और इनके मन में अगरेजों से लोहा लेने का संकल्प दृढ़ होने लगा। कांग्रेस के लखनऊ- अधिवेशन में महात्मा गाँधी की दृष्टि इनपर पड़ी। 1917 ई0 में जब महात्मा गाँधी चम्पारण-आन्दोलन के सिलसिले में बिहार आये, तो इन्होंने पूरा सहयोग दिया। लोग इन्हें 'बिहार का गाँधी' कहकर पुकारने लगे।
1919 ई0 में पंजाब में जलियाँवाला-कांड हुआ। इस कांड से द्रवित होकर अगरेजों से जूझने के लिए राजेन्द्र बाबू ने बिहारी स्वयंसेवकों की एक विशाल वाहिनी निर्मित की। पटने में जब 'सदाकत आश्रम' की स्थापना हुई, तो कांग्रेस ने इन्हें अपना महामंत्री बनाया। 1942 ई की अगस्त-क्रान्ति में ये तीन वर्ष के लिए कारागार में धकेल दिये गये। जैसे सोना तपने पर कुंदन बन जाता है, वैसे ही तपकर ये और दमक उठे।
1945 ई. में इन्होंने शिमला-कॉन्फ्रेन्स में भाग लिया। इसमें इन्होंने अत्यधिक कार्यकुशलता दिखलायी। अब स्वतंत्रता की लालिमा छिटकने ही वाली थी। राष्ट्र-संचालन के निमित्त विधाननिर्मात्री सभा का आयोजन हुआ। उसके ये अध्यक्ष चुने गये। 1946 ई0 में केन्द्रीय मंत्रिमंडल में इन्होंने खाद्यमंत्री का पदभार संभाला।
भारत में गणतंत्र का सरज चमका, तो सारे राष्ट्र ने इनकी त्याग-तपस्या के वशीभूत होकर 1950 ई. में इन्हें पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र के राष्ट्रपति-पद पर आसीन किया। शताब्दियों से परतंत्रता की चक्की में पिसता हुआ राष्ट्र इनकी वरद छत्रच्छाया में फूला न समाया। तबसे 1962 ई0 की 14 मई तक ये भारतके गौरवगढ़ के सर्वमान्य अधिपति बने रहे।
इस अवधि में इन्होंने अनेक कार्य किये। इनका सक्रिय सहयोग पाकर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू सारे संसार में 'पंचशील' का सन्देश देते रहे।
1962 ई0 में इनकी आयु 78 वर्ष की हो चुकी थी (जन्म 3 दिसम्बर, 1884 ई0 है)। इनका स्वास्थ्य बहुत गिरने लगा और ये सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन को अपने पद पर सुशोभित कर, दिल्ली के भव्य प्रासाद को छोड़कर सदाकत आश्रम की अपनी पुरानी कुटिया में आ विराजे। जहाँ से इन्होंने राजनीतिक जीवन और तूफानी कार्यक्रम का आरम्भ किया था, वहीं रहकर इन्होंने अपना शेष शान्त जीवन बिताने का विचार किया। किन्तु, परमात्मा ने इन्हें बहुत दिनों तक हमारे बीच रहने नहीं दिया। 28 फरवरी, 1963 ई. को इन्होंने पटना के सदाकत आश्रम में अन्तिम सांस ली। इनकी शवयात्रा में लाखों की भीड़ उमड़ चली थी। जिस पथ पर खड़े होकर लोगों ने कभी चन्द्रगुप्त, अशोक, बुद्ध और महावीर की क्षणविदाई सही होगी, उसी पथ पर दौड़-दौड़कर अश्रुओं का अर्घ्यदान देकर लोगों ने अपने राष्ट्रदेवता देशरत्न को अन्तिम विदाई दी।
राजेन्द्र बाबू 'सादा जीवन, उच्च विचार' में विश्वास रखते थे। राष्ट्रपति-भवन के ऐश्वर्यमय वातावरण में रहकर भी इनके विश्वास पर कोई आँच नहीं आयी। देश पर जब-जब विपत्तियों के बादल मँडराये, इन्होंने अपनी छिंगुनी पर गोवर्द्धन उठाकर उसक रक्षा की। जब-जब इन्हें प्रताड़नों के अनल में जलाया गया, ये उसे प्रह्लाद का न हैंस-हंसकर चन्दनवत् शीतल बनाते रहे। अनाचारों का चक्रव्यूह भेदने में ये सब समर्थ महारथी सिद्ध हुए।
राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिए इन्होंने जो कुछ किया है, उसे हम भूल नहीं सकते। राष्ट्रभाषा के आह्वान पर अपने स्वास्थ्य की परवाह न कर ये दौड़ पड़ते थे। इन्होंने मनसा, वाचा, कर्मणा हिन्दी की सेवा की। इनकी खंडित भारत', 'आत्मकथा', 'बापू के कदमों में', 'गाँधीजी की देन', 'साहित्य और संस्कृति' जैसी रचनाएँ हिन्दी का श्रृंगार करती हैं।
आज बिहार की भूमि बहुत उदास है। पता नहीं, वह राष्ट्रदेवता को देशरत्न राजेन्द्र जैसा प्रतिभासम्पन्न सपूत फिर कब दे पायेगी।
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