रिक्शावाला की आत्मकथा 
Rickshaw Wala ki Aatmakatha 

महानगरों की जानलेवा सवारियों से संत्रस्त कोलाहल-भरे राजमागों पर निकल जाय या दुर्गन्धमयी नालियों से भरी दमघोंटू गलियों से गुजर जायें या छोटे शहरों का कीचड़-भरी सड़कों पर खड़े हो जाये या गाँवों की नगरमुखी धूलिमयी राहों की आर घूम जायं, आप पायेंगे-मुझ-सरीखा एक हट्टा-कट्टा नौजवान रिक्शे का हैडिल थान आपकी सेवा के लिए खड़ा है। मुझे ही आप 'ऐ रिक्शा' या 'ऐ रिक्शावाले' कहकर पुकारते हैं। मैं टमटम भी हूँ, उसका घोड़ा भी हूँ, यानी वाहक भी हूँ और वाहन भी। इसीलिए आप चाहे 'ऐ रिक्शा' कहकर पुकारे या 'ऐ रिक्शााले', दोनों ही हालत में मैं आपकी समान सेवा को तत्पर हूँ। चाहे जेठ की अंगारें बरसाती चिलचिलाती दपहरी हो, चाहे सावन की प्रलयंकर घटाओं से लदी-झुकी शाम हो, चाहे शिराओं के खुन को बर्फ-सा जमा देनेवाली माघ की रात हो, मैं अपनी जान हथेली पर लिये आपकी सुख-सुविधा के लिए खून को पानी बना देने के लिए सदा-सर्वदा तैयार रहता

यह बात ठीक है कि न मैं लक्ष्मी का लाड़ला है और न सरस्वती का कृपापात्र। यह भी जानता हूँ कि सब तरह की आग से दाहक भयावह, होती है पापी पेट की आग। इसीलिए तो इस आग को बुझाने के लिए जी-तोड़ परिश्रम करता हूँ। मेरी नस-नस में बिजली की फुर्ती है-मेरी मांसपेशियाँ इतनी फौलादी हैं कि एक बार जोर लगा दूँ तो पत्थर पानी बन जाय। मैंने बुजर्गों से सुना है कि एक कंगाल मोची के बेटे नेपोलियन ने संसार में क्या कमाल कर दिखलाया, एक गरीब किसान की सन्तान वाशिंगटन अमेरिका का उद्धारक हुआ तथा निर्धनता की नंगी गोद में पला कारनेगी धनकुबेर बना। मैं ऐसे निरक्षरभट्टाचार्यों को भी जानता हैं जिन्होंने बड़े-बड़े साम्राज्यों का निर्माण तथा विनाश किया है। अतः मेरे कार्य को मेरी विवशता समझने का भ्रम मत पालिए।

बड़े-बड़े सम्पन्न या साम्यवादी देशों में भी आज तक ऐसा नहीं हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति की आय समान हो तथा सबकी सुख-सुविधाओं का समान प्रबन्ध हो, तो फिर अपने देश भारत की बात क्या की जाय। जब तक हमारे देश की निर्धनता दूर नहीं होती, सारे देश में उत्तुम मार्ग-व्यवस्था नहीं हो जाती, हम सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता नहीं प्राप्त कर लेते, तब तक रिक्शे की आवश्यकता समाप्त नहीं होगी और जब तक रिक्शे की आवश्यकता बनी रहेगी, उसका चालक भी किसी-न-किसी को बनना ही पड़ेगा। रिक्शा हम चला या आप, झाडू हम लगायें या आप, सुलभ एवं स्वच्छ शौचालय के अभाव में विष्ठा माथे पर चढ़ाकर भंगी ढोये या महात्मा गाँधी-काम आ पड़ने पर किसी-न-किसी को तो करना ही है!

काम कौन बड़ा है और कौन छोटा ? महात्माओं को जूठी पत्तल उठाने में वही आनन्द मिलता है, जो गीताभाष्य पढ़ने में या भगवान का भजन गाने में। उनकी दृष्टि तो सम होती है। सारा काम प्रभु का है-इसी भाव से वे कर्मरत होते हैं। श्रम मेरा भगवान है-मैं निष्ठा से, भक्ति-भाव से इसकी आराधना करता हूँ। मेहनत-मशकत से घबरानेवाला, शर्मिन्दा होनेवाला जीव मैं नहीं है। यदि मेरे काम में आपको हीनता का बोध होता हो, तो यह आपकी समझ का फेर है, बुद्धि की विकृतिमात्र है।

अभी आपके इकलौते बेटे की नाड़ी खिंच रही है और आप किसी चिकित्सक के यहा जाने को बेचैन हैं। ऊबड़-खाबड़ रास्ते से भीड़-भाड़ को पार करते हुए मैंने आपको उचित समय पर डॉक्टर के यहाँ पहुँचाया और आपकी चित्ता का एक अंश दूर किया। घुप्प अँधेरा ! हाथ को हाथ नहीं सूझता। रात के बारह बजे हैं। बेचारी बाढ़या गाड़ी से उतरी है और उसे लकुटिया का सहारा लिये दो मीलों का रास्ता नापना का पर, चिन्ता की कोई बात नहीं। मुझ-सा उसका बेटा जो उसकी सहायता के लिए खड़ा है। जरूरत के समय कोई भी मुझपर भरोसा कर सकता है। निर्दिष्ट स्थान तक आपको सकशल पहुँचाने में मैं अपनी जान की बाजी भी लगा सकता हूँ। आपके सहानुभूति-भर दो शब्द मेरे लिए बहुत हैं; धातु के चन्द टुकड़ों से पेट पालने की परवाह उतनी ही भर मुझे है, जितनी आपको।

जिस मार्ग पर गगनचारी वायुयान, जलचारी जलयान तथा स्थलचारी रेलगाड़ी या हवागाडी का प्रवेश अकल्पनीय है, वहाँ मैं मस्ती से झूमता-मचलता अपना रिक्शा निकाल देता हूँ। मेरे रिक्शे के तीन पहिये मानो जल-स्थल-नभ तीनों के विजयचक्र हैं। जब आप यह समझेंगे, तो मेरी महत्ता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रहेंगे। इधर सुनता हूँ कि कुछ लोग आदमी का रिक्शा चलाना बन्द कर मशीन का रिक्शा चलवाना चाहते हैं। मगर मशीन का रिक्शा चलाना तो सीखना पड़ेगा, उस रिक्शे मे तो काफी पैसे लगेंग। मुझे यह मशीनी कारीगरी सिखायेगा कौन, मैं उतना कीमती रिक्शा खरीदंगा कहाँ से? खैर, वैसा होगा, तो देखा जायगा। जब मजदूरी ही करनी है, तो क्या फिक्र ! अभी तो आप सवार है और मैं रिक्शावाला ! कहिए हुजूर, किधर चलूँ?