भिक्षुक 
Bhikshuk

जेठ की सघन दुपहरी, जिसमें छाँह को भी छाँह चाहिए। चारों ओर लू चल रही है, मानो वसंत के विरह में ग्रीष्म उसाँसें ले रहा हो। अलकतरा पिघले हए लोहे-सी सड़क पर बह रहा है। वातानुकूलित अँधेरे बन्द कमरे से बाहर झाँकने का मन नहीं होता और किसी ने आवाज दी-दाता का भला करे भगवान !

मेरे आरामपसन्द मन और सुविधाभोगी तन ने विद्रोह किया। कौन इस पंचाग्नि में शरीर झुलसाये ! थोड़ी देर तर्क-वितर्क के धागे पर मन कठपुतली-सा नाचता रहा। सोचा, कहीं कोई वामन ही तो भिक्षुकवेश में नहीं आ गया है, कहीं कोई देवेश इन्द्र ही तो नहीं जो किसी कर्ण का कवच-कुंडल माँगने आ निकला है, कहीं कोई तथागत ही तो नहीं जो कंथा लिये अम्बपाली की कुटिया को कृतार्थ करने आ गया है। बहुत साहस बटोरकर ज्योंही द्वार खोला, उस कंकाल-काया को देखकर निराला की कविता साकार हो उठी-

वह आता, 

दो टूक कलेजे के करता 

पछताता पथ पर आता! 

पेट-पीठ दोनों मिलकर है एक 

चल रहा लकुटिया टेक 

मुट्ठीभर दाने को 

भूख मिटाने को 

मुंहफटी पुरानी झोली को फैलाता 

वह आता, दो टूक कलेजे के करता

पछताता पथ पर आता। चूसकर फेंके गये आम-से ओठ, किसी अबाबील के घोंसले बन गये बाल. पीपल-कोटर-सी फंसी-धंसी आँखें, धरती को उठा लेने के लिए वराह-से निकले दाँत, अतिम आहुति डाल देने के लिए जीर्णशीर्ण काठ के कलछुल-से हाथ तथा लड़खड़ाकर गिर पड़नेवाले बबूल के काँटे-से पाँव-कठबोगने की-सी पूरी आकृति 'दवा खाने के पहले' के विज्ञापन की सच्ची प्रतिकृति मालूम पड़ रही थी।

और तब, मन में विचारों का सैलाब उमड़ पड़ा। आखिर इन लोगों को इस पात म लाने का उत्तरदायी कौन है ? देश का एक व्यक्ति गद्दे पर सोये, छप्पन भोग कर छोड़ दे और दूसरा व्यक्ति चने के चार दाने के लिए दर-दर की ठोकरें खाये- आकाश-पाताल का यह अंतर कितना बड़ा अनर्थ है। एक जायज-नाजायज तरीके से धन बटोरकर कुबेर-कोष को ललचाये और दूसरा दिन-भर एड़ी-चोटी का पसीना एक करके भी पर्याप्त भोजन न प्राप्त कर सके और अंत में पोषक तत्वों के अभाव में अपाहिज बन जाय ! उस अपाहिज-अपंग को कोई का न मिले और पेट की आग बुझाने के लिए वह दूसरों की नींद हराम करे और अपनी झोली में लाख-लाख गालियों का उपहार लेकर लौटे-लाख-लाख दुर्वचनों के शर से घायल होकर किसी सुनसान कोने में कराहा करे! सचमुच, मानवता के दामन में यह इतने बड़े कलंक का धब्बा है कि यदि हम इसे पोंछ नहीं देते, तो मानव कहलाने के अधिकारी नहीं है।

याचक-वृत्ति की बड़ी निन्दा की जाती रही है। हाँ, जिसकी भुजाओं में शक्ति हो, जिसके हृदय में आत्मसम्मान की ज्योति जल रही हो, उसके लिए भिक्षाटन पाप अवश्य है। जो दिन में भीख माँगते चलते हैं, रात में सिनेमा देखते हैं और घरों में मनीआर्डर भेजते हैं, वे पेशेवर भिखारी कामचोर हैं, वंचक हैं। वे हमारी घृणा के ही पात्र नहीं, दण्ड के भी पात्र हैं। इन आलसियों से तो जेल में चक्की पिसवानी चाहिए। हम भारतवासी, जो अनादिकाल से दान देते रहे हैं और आज समर्थ-सक्षम होकर भी विश्व के समक्ष अन्न-धन के लिए झोली फैला रहे हैं, क्या वैसे ही पाप और दण्ड के पात्र नहीं हैं?

किन्तु, जो लाचार-विवश गरजते सावन, बरसते भादो, उबलते जेठ तथा जमते माघ में गली-गली, द्वार-द्वार एक मुट्ठी दाने के लिए दीन बनते फिरते हैं, उनकी समस्या का समाधान तो करना ही पड़ेगा। हम या तो अपनी इच्छा से दान करें अथवा सरकारी कानून के द्वारा धन-सम्पत्ति का ऐसा वितरण करें कि हमारे समाज में कोई याजक कोई भिखारी न बच जाय। असहाय हो जाना बहुत बुरा है, मगर उससे भी बुरा है समर्थ होकर भी असहायों की सहायता न करना। भीख मांगना और अपंग होने के कारण भीख माँगने की मजबूरी में फँस जाना बड़े दर्द की बात है; मगर वैसा भिखारी यदि किसी से सहायता की याचना मुँह खोलकर करे और वह व्यक्ति समर्थ होकर भी इतना हदयहीन, इतना बेदर्द निकले कि 'ना' कर बैठे-यह तो सबसे अधिक दर्द की बात है। दानवीर कवि रहीम की वाणी है-

रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं। 

उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहि ।।