डाकिया 
Postman

चाहे वह निर्धन की कुटिया हो अथवा धनी का प्रासाद, चाहे वह अध्यापक का कक्ष हो या व्यापारी का कार्यालय, हर घर में, हर दिन जिसकी बड़ी ही बेचैनी से प्रतीक्षा रहती है-वह है डाकिया। खाकी पैंट और खाकी कमीज पहने, कन्धे पर खाकी झोला लटकाये जब वह सामने से गुजरता है, तो उसकी ओर सबकी दृष्टि अनायास खिंच जाती है। ऐसे साधारण कर्मचारी की इतनी उत्कट प्रतीक्षा ! सचमुच किस्मत का सिकन्दर है डाकिया !

डाकिया अभी आया, लगा कि कालिदास के विरही यक्ष ने अपनी अलकानिवासिनी प्रिया के पास सन्देश देने के लिए मेघदूत भेजा हो, अथवा सूर के श्याम ने अपनी राधा के पास पाती पहँचाने के लिए उद्धव को भेजा हो, अथवा घटकपीर की किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी के पास उलाहना भेजी हो, अथवा गौतुम ने अपने राहुल की सुधि लेने के लिए आनन्द को भेजा हो, अथवा फाँसी के तख्ने पर हँसते-हँसते झूल जानेवाले वीर भगतसिंह ने अपनी वृद्धा माता के पास अपना अंतिम अभिवादन अर्पित किया हो। पता नहीं, उसके झोले में जो अनगिन मटमैले लिफाफे हैं, उनमें कितनों के भाग्य मुहरबन्द हैं। वह हमारे लिए एक ही साथ मेघदूत, भ्रमरदूत, कोकिलदूत, मनोदूत, राजदूत इत्यादि न मालूम कितने दूतों का समन्वय है, कहा नहीं जा सकता। उसके झोले से चिट्ठियाँ निकलीं और कैसी-कैसी बयार बह चली, कैसे-कैसे स्रोत उमड़ आये। किसी के ओठों पर हँसी के गुलाब खिल आये, तो किसी के नयनों के कगारों पर आँसू की घनघटा घहर उठी, किसी की आँखों में क्रोध की ज्वाला भड़क उठी, तो किसी की आँखों में प्रसन्नता की मन्दाकिनी छहर उठी। उसका थैला मानो एक कमानी है, जो न मालूम किसकी हृदय-सारंगी के कौन-से तार झंकृत कर कौन-सी रागिनी उत्पन्न कर देगा। सुख-दुःख, अनुराग-विराग, श्रद्धा-घृणा, सन्तोष-असन्तोष, शान्ति-अशान्ति, आशा-निराशा- कौन-सा कुसुम या कंटक हमारे द्वार वह डाल जाएगा, भगवान् ही जानता है।

डाकिया केवल सन्देशदाता नहीं, अर्थदाता भी है। बेचारी बुढ़िया का चूल्हा कई दिनों से ठंढा हो गया है, बेचारी ने जीवनभर किसी के सामने हाथ पसारा नहीं, किन्तु आज पेट की आग से विवश होकर ज्योंही वह लकुटिया का सहारा लिये मडैया से बाहर निकली कि डाकिये ने कहा-बूढ़ी माँ, तुम्हारे कमाऊ बेटे ने कलकत्ते से पचीस रुपये भेजे हैं। वृद्धा की उदास-निराश आकृति खिल उठी और उसकी आँखों से । हरसिंगार के दो फूल टपक पड़े-"जुग जुग जीओ बेटा!" डाकिया आशीर्वाद के गंगाजल से भींगता हुआ आगे निकल गया। इतना ही नहीं, परीक्षार्थी बड़ा ही चिन्तित है। एक आवश्यक पुस्तक का आदेश दिया है। डाकिये ने ज्योंही पस्तक का पासल परीक्षार्थी के सामने रखा, तो उसकी बाछे खिल गयीं, खुशियों के मारे उसका मन मयू नाच उठा और कह उठा-"डाकियाजी, जरा शरबत पी लेना।" जेठ की तपती दुपक्षण में, जहाँ छाँह को भी छाँह चाहिए, डाकिया तपता-जलता भी हमें सन्देश और स देता है-"परमारथ के कारने साधुन धरा सरीर।"

डाकिया भले ही कम वेतन पाता हो, भले ही उसकी कमीज में दो-चार पैबन्द हों, भले ही उसके जूते में कभी पालिश न लगी हो किन्तु, फिर भी वह हमारा वैसा सखा उद्धव है, जिसकी सूरत कभी बिसर नहीं पाती।