गंगा नदी 
Ganga Nadi

महाराज भगीरथ के हम बहुत आभारी हैं कि उन्होंने अपनी असाधारण साधना से व्योमहारिणी गंगा को पृथ्वीवासिनी बना दिया। गंगा हमारी परम उज्ज्वल संस्कृति की कीर्तिवाहिनी हैं। ये हमारे समक्ष भारतीय इतिहास के कितने स्वर्णिम पृष्ठों का अनावरण करती हैं, कहा नहीं जा सकता।

कहा जाता है कि गंगा संसार के पालक विष्णु भगवान के पदनखों से जन्मीं। संसार-स्रष्टा ब्रह्मा ने इस चरणामृत को अपने कमंडलु में धारण किया। भगीरथ की तपस्या के कारण जब 'महाराज सगर के साठ हजार अभिशप्त पुत्रों का उद्धार करने के लिए गंगा प्रबल वेग से आकाश से उतरी, तो शिव ने इन्हें अपने जटावान मस्तक पर धारण किया। गंगाधर के जटाजूट में अनेक वर्ष चक्कर काटने के बाद ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि को ये पृथ्वी पर आयीं। मार्ग में इन्होंने जल ऋषि के यज्ञमंडप को बहा दिया। क्रुद्ध मुनि भागीरथी को चुल्लुओं में पी गये, तो बड़ा हाहाकार मचा। भगीरथ की प्रार्थना पर जल ने इन्हें कान के मार्ग से बाहर किया। इसीलिए ये 'जहुतनया' तथा 'जाह्नवी' कहलायीं। वहाँ से आगे बढ़ीं और रसातल पहुँचकर भगीरथ के पूर्वजों के भस्म को अपने पवित्र जल से बहाकर स्वर्गलोक तक ले गयीं।

इन पावनी गंगा ने जितने महान कार्य किये, उनमें एक-एक इन्हें अक्षय यशस्विनी बनाने के लिए पर्याप्त हैं। शिव के तेज को शान्त कर स्कन्द के जन्मग्रहण में सहायिका बनीं। गंगा ने कितने दलितों-पतितों का उद्धार किया है- यह किसे मालूम नहीं है? गंगा यदि और कुछ नहीं करती, तो केवल इनका भीष्मजननी होना क्या साधारण बात है ? भारतवर्ष के सुदीर्घ इतिहास में जो दो-चार वीरव्रती ब्रह्मचारी हुए हैं, उनमें भीष्म का नाम सर्वोपरि है। महाभारत भीष्म पितामह की तेजोमयी गाथाओं से उजागर है और इसका सारा श्रेय वीरप्रसविनी माता गंगा को ही है।

गंगा का अतीत जितना गौरवपूर्ण एवं भाखर है, उससे कम इनका वर्तमान नहीं है। जब ये हिमालय की गोद से निकलती है, तो राष्ट्र को अपना आशीर्वाद सौंपती हुई, खिलखिलाती बंगोपसागर तक चली जाती हैं। हिमालय यदि भारत का रजतमुकुट है, तो गंगा उसके वक्षस्थल का हीरक-हार। मार्ग में ये अपने परिचय के अनेक सूत्र गूंथती हैं। अपने सिर की वेणी झुलाती हुई तथा पग-पायल की झंकार गूंजाती हुई जाती मालूम कितनी नदियाँ इनमें समा जाती हैं। इनका जल भारतीय जनता के लिए तीर्थजल है, अमृततुल्य है। इनकी लहरों की वीणा पर नवजीवन का संगीत अहरह बजता रहता है। इनकी दुधिया मुस्कुराहट से सैकड़ों मील प्रसन्नता की चाँदनी छिटकती रहती है। इनके पारसजल के संस्पर्श से धूलि की ढेर सोना उगलती रहती है। इनकी तट-रूपी. बाहुओं पर भारतीय इतिहास की कितनी सामग्री मुद्रित हुई, कितनी धूमिलइसकी सूची रखना भी सम्भव नहीं है। इनके आँचल की छाया में कितने भारद्वाज, चाणक्य और तुलसीदास ने साधना के दीप जलाये हैं और सिद्धि से प्रकाश पाया है, इसका लेखा-जोखा सम्भव नहीं। यही कारण है कि क्या वेद, क्या पुराण, क्या वाल्मीकि, क्या व्यास, क्या कालिदास, क्या विद्यापति, क्या तुलसीदास, क्या केशवदास, क्या रसखान, क्या पद्माकर, क्या भारतेन्दु, क्या मैथिलीशरण गुप्त-सभी ने अपनी भक्तिगन्धी कविताओं के कमनीय कुसुम माँ गंगा के चरणों पर अर्पित किये हैं।

लोकगीत की एक नायिका गंगामाता से अनुनय करती है कि ये धरि बहें, क्योंकि उसका प्रियतुम पार उतरनेवाला है। गंगा उससे प्रश्न करती हैं कि किस चीज की तेरी नैया है तथा किस चीज की पतवार उसमें लगी है। गीत की पंक्तियाँ देखें

धरि बहो गंगा ते धीरे बहो 

मोरा पिया उतरइ दे पार। 

काहे की तोरी नैया रे 

काहे की करुवार, 

कौन तोरा नैया खेवैया रे 

के धनि उतरइ पार ? 

धरम की मोरी नैया रे

सत की पतवार.........। 

गंगा माता के प्रश्न बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। इन्होंने हमारे देश की संस्कृति से ही मानो प्रश्न पूछे हैं। नायिका ने अपने उत्तर में हमारी संस्कृति के मूलभूत रहस्य का उद्घाटन किया है। वह कहती है कि धर्म की मेरी नाव है और सत्य की पतवार। जो देश या जाति धर्म की नाव पर सत्य की पतवार का सहारा लेकर जीवनयात्रा पर निकल पाती है, उसके पार हो जाने में सन्देह तो नहीं ही होना चाहिए। गंगा ही इस देशजाति के धर्म और सत्य की वाहिका रही हैं।

किन्तु, आज हम वैज्ञानिक सभ्यता के विवेकशील प्राणी गंगा को साधारण जलधारा मानकर उपेक्षित करते हैं, यह बड़ा कष्टकर है। जब गंगा अपने प्रियतुम सागर से मिलने जाती हैं, तो उन्हें हम नगरों की दुर्गन्धमयी गन्दी नालियों का अर्घ्य देते हैं, सड़ी-गली वस्तुओं तथा कूड़ा-करकटों का नैवेद्य देते हैं तथा मृतक पशुओं एवं नरों के रुंड-मुंडों का पुष्पमाल पहनाते हैं। क्या यही हमारी कृतज्ञता का ज्ञापन है? कदापि

जो देवनदी गंगा गीता और गायत्री की तरह पवित्र हैं और हमारे समक्ष हर क्षण अपना सहज मातृस्नेह लुटाती रहती हैं, उनके प्रति हमारा उपेक्षाभाव अक्षम्य अपराध है। हम उनकी महिमा से परिचित हों। उनकी सेवा, सेवन और उनके जल को पवित्र रखने से हमारी लौकिक और पारलौकिक उन्नति निश्चित है।