हिमालय पर्वत माल 
Himalaya Parvat Mala

यदि देवात्मा हिमालय ने और कुछ भी न किया होता, केवल वा भगवती गंगा और माहेश्वरी उमा का ही जनक होता, तो भी भारतीय जनता युगों तक इसके चरणों पर अपनी अपार श्रद्धा के पुष्प अर्पित करना नहीं भूलती। गंगा और उमा पर्वतशिरोभाण हिमालय की अक्षय कीर्ति-पताकाएँ हैं। गंगा, जिसने साठ हजार अभिशप्त सगरपुत्र का उद्धार किया तथा जिसने अखंड बालब्रह्मचारी भीष्म का जनन किया और पावता जिसने तपस्या के बल पर कामजित् प्रलयंकर शंकर को अपने प्रणयपाश में बाँधा तथा स्कन्द का जनन कर महापातकी तारकासुर का विनाश किया-यह सब दोनों के धमा पिता हिमालय का पुण्योदय था।

हिमालय के माहात्म्य का कहना ही क्या। यहाँ सप्तर्षिगण अपने लोक से उतर कमल-पुष्प तोड़ने आते थे। इसके तपोवनों में बड़े-बड़े प्रतापी राजा विनीत वेश में प्रवेश करते थे। यहाँ के आश्रमों में सदा वेद पढ़नेवालों की वेदध्वनि होती रहती थी। संन्यासियों की समाधि यहीं लगती थी, तपस्वियों की तपस्या यहीं चलती थी। यहाँ किनरियाँ त्रिपुरविजय के गीत गाती थीं। यहाँ दर्पण की तरह खच्छ झीलों में सिद्धांगनाएँ अपना अपरूप रूप निहारती थीं। वृक्ष की कोमल टहनियों पर शिव के हास्य की तरह दुग्ध-धवल हिम यहाँ जमा रहता है। यहाँ देवदास, अर्जुन तथा शाल के वृक्ष सेवक की तरह बन्दगी बजाते रहते हैं। यहाँ कृष्णसार मृगों की चौकड़ी से मखमली फूल खिलते हैं। कभी हरिणियाँ अपनी झवरीली पूंछों से इस गिरिराज पर चवर डुलाने का काम करती रहती थी। इसलिए कविवर दिनकर ने ठीक ही कहा है-

मेरे नगपति । मेरे विशाल । 

साकार, दिव्य, गौरव विराट् ! 

पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल। 

मेरी जननी के हिमकिरीट । 

मेरे भारत के दिव्य भाल !

मेरे नगपति! मेरे विशाल ! 

एक और हिमालय के गौरीशंकर, कृष्णशैल, धौलागिरि, कंचनजंघा, केदारनाथ, नानकंठ जैसे तुषारमंडित शिखर सारे संसार की सात्त्विकता का सन्देश देते हैं, तो दूसरी ओर सिंधु, झेलम, रावी, सतलुज, व्यास गंगा, यमुना, बह्मपुत्र, सरयु, गंडकी जैसी इसकी आत्मजा नदियाँ भारत को शस्यश्यामला ही नहीं बनाती, वरन् इसके इतिहास को समुज्ज्व ल कर रही है। इतना ही नहीं, भारत का यह अडिग प्रहरी, बर्फ का कवच धारण किये हुए, कश्मीर से कामरूप तक लगभग आठ सौ कोसों तक अपनी विशाल बाहुएँ फैलाये तथा गौरीशंकर का निशाना साधे रक्षा करता रहा है। ऐसे प्रहरी के कारण ही भारत-माँ निश्चिन्तता की साँस सोती रही, उसकी सन्ताने मौज और मस्ती मे दिन बिताती रहीं।

एक बार सहसा सन् 1962 ई0 के 20 सितम्बर को जुल्मी चीनियों ने हमारे इस दुर्दष प्रहरी को रोदना शुरू किया। हमारा अभयदाता रक्षक एक बार तिलमिलाया। दुश्मनों के खूनी पंजों ने उसे लहूलुहान किया और तब इसने हमें पुकारा-

शंकर की पुरी चीन ने सेना को उतारा।

चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।--नेपाली 

शान्ति की मीना पर अशान्ति के बादल घिर आये। हिन्द की दीवार पर विस्फोटक बमगोले बरसने लगे। सोये सागर में उफान आया। शंकर के वासुकिनाग फुफकार उठे। हमने हिमालय की पुकार पर प्राणों की बाजी लगा दी। फिर क्या था ? चीनी चींटी की तरह भागते नजर आये।

हिमालय भारतीय संस्कृति का आधारस्तम्भ है। यह हमारा सभ्यता का कीर्तिध्वज है। यह हमारे राष्ट्र का प्राणस्रोत है। भारत का सम्पूर्ण गौरवशाली अतीत इसकी गोद में व्यतीत हुआ है, इसका वर्तमान इसकी प्रेरणा से करवटें ले रहा है। हम भारतवासियों ने भिक्षा की झोली फैलाने में कभी विश्वास नहीं किया है। विवशता में भी ऐसा नहीं करने को हिमालय हमें रोक रहा है।

ओ हिमालब। आप बड़े ही वयोवृद्ध, संरक्षक, धौर एवं उदार हैं। आज हम आपस एक बात पूछना चाहते हैं कि आपने अपने हिमानी मार्गों पर गदाधारी भीम, गाण्डीवधारी अर्जुन, रूपवान नकुल, विद्याव्यसनी सहदेव तथा नयविशारदा द्रौपदी को क्यों गल जाने दिया। भारत-माँ बड़ी व्यग्रता से अपनी इन सन्तानों को ढूँढ़ रही है। आज विश्व में फिर एक बार लोमहर्षक महाभारत छिड़नेवाला है। अणु-अस्त्रधारी कौरवों की विशाल वाहिनी उमड़ती चली आ रही है। क्या आप उन पाण्डवों को हमें शीघ लौटा नहीं देंगे?