सरस्वती पूजा 

Saraswati Puja


सरस्वती विद्या और बुद्धि की देवी हैं। जो जितना शिक्षित एवं सुसंस्कृत है, उसपर उनकी उतनी ही कृपा समझनी चाहिए। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भवभूति, सूरदास, तुलसीदास-जैसे वरेण्य कवि उसी वाग्देवी की आराधना कर अमरकीर्ति हो गये हैं।

परमेश्वर की तीन महती शक्तियाँ है-महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती। शक्ति के लिए काली, धन के लिए लक्ष्मी तथा विद्या के लिए सरस्वती की पूजा की जाती है। परम्परा से माघ शुक्ल पंचमी को सरस्वतीपूजा की जाती रही है।

सरस्वती का माहाल्य अकथ है। उनके अनेक नाम हैं-ब्राह्मी, भारती, भाषा, गिरा, वाक्, वाणी, शारदा, वागीशा, महाश्वेता, वीणापाणि, पुस्तकधारिणी, विधात्री, बागीश्वरी, श्री, ईश्वरी इत्यादि। उनके एक हाथ में पुस्तक और दूसरे हाथ में वीणा रहती है। इससे यह स्पष्ट है कि वे काव्य और संगीत दोनों प्रमुख कलाओं की अधिष्ठात्री देवी हैं। वे श्वेत वस्त्र धारण करती है जिससे उनकी निष्कलुषता, पवित्रता एवं सात्विकता का बोध होता है। वे श्वेत कमल पर आसीन रहती है जिससे उनकी निर्लेपता का भाव अवगत होता है। उनका वाहन हंस है; अर्थात् जो नीर-क्षीर-विवेकी हैं, वे ही सरस्वती का वहन कर सकते हैं।

यों तो छात्र और शिक्षक आजीवन स्वभावतः सरस्वती-पूजा करते हैं, किन्तु माघ श्रीपंचमी को सांस्कृतिक पर्व के रूप में सरस्वती-पूजन किया जाता है। प्रातःकाल से विद्यालय रंग-बिरंगे कागज, बैलून, पत्र, स्तम्भ, बन्दनवार इत्यादि से सजाया जाता है। धूप, दीप, नैवेद्य इत्यादि पूरे विधि-विधान से पंडितजी द्वारा पूजा करायी जाती है तथा लोगों में प्रसाद वितरित किया जाता है। रात में नाटक, गीत-वाद्य, कविगोष्ठी इत्यादि का आयोजन किया जाता है। दूसरे दिन की संध्या में किसी तालाब या नदी में शोभायात्रा की धूमधाम के साथ माता की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है।

सरस्वती पूजन पोंगापंथीपन या रूढ़िवादिता का लक्षण नहीं है। संसार में किसी-न-किसी रूप में विद्यादेवी की उपासना अवश्य होती है। अज्ञान की कुहेलिका को छिन्न करने के लिए, वाणी के आलोक से तीनों लोकों को आलोकित करने के लिए सरस्वती की पूजा पवित्र भाव से अवश्य करनी चाहिए। ऐसे अवसर पर ध्वनि-विस्तारक यंत्रों से भद्दे गीतों का प्रचलन रोक देना चाहिए। यदि सरस्वती की कृपा होगी, तो हम कालिदास की तरह विश्ववंद्य हो सकते हैं। यदि वे मति फेर दें, तो हम कैकेयी की भांति 'अजस-पिटारी' बन जायें। गोस्वामी तुलसीदास के 'मानस' की सफलता का यही रहस्य है कि उन्होंने वाणी-वंदना से अपने महाकाव्य का शुभारम्भ किया है. वाग्देवी के प्रारम्भिक अमृताक्षर 'व' से ही अपने रामचरित के मणि-माणिक्य को संपुटित किया है।

अपने कवि महाप्राण निराला के शब्दों में हम ज्ञानदायिनी माँ सरस्वती से प्रार्थना करते हैं-


वर दे, वीणावादिनि, वर दे! 

प्रिय स्वतंत्र रख अमृत-मंत्र नव

भारत में भर दे। 

काट अन्ध उर के बन्धन-स्तर 

बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर 

कलुष भेद तुम हर प्रकाश भर

जगमग जग कर दे! 

नव गति, नव लय, ताल छन्द नव 

नवल कण्ठ, नव जलद-मन्द्र रव 

नव नभ के नव विहगवृन्द को

नव पर, नव स्वर दे!