रंगों का त्योहार होली
Rango Ka Tyohar Holi


जिसका स्मरण करते ही कण-कण में बिजली का स्पन्दन हो जाता है, नस-नए - में लालसा की लहर दौड़ जाती है, मन-प्राणों पर भावों का सम्मोहक इन्द्रधनुष छा जाता है, उसका नाम है होली। मौज और मस्ती, रवानी और जवानी, रंगीनी और अलमस्ती की एक बहुत ही खूबसूरत यादगार का नाम है होली।

माघ की पंचमी को प्रकृतिरानी ऋतुराज को आमंत्रण भेजती है। ऋतुराज जब अपने आगमन की सूचना देता है, तो प्रकृतिरानी के अंग-अंग में खुशियों के कदम्ब खिल उठते हैं। वस्तुतः, होली ऋतुराज वसंत की आगमन-तिथि फाल्गुनी पूर्णिमा पर आनन्द और उल्लास का महोत्सव है। यह जीर्णता-शीर्णता, परातनता के स्थान पर नित्यनूतनता के स्थापन का मंगलपर्व है। पुराना वर्ष बीता रीता-रीता, सूना-सूना; नया वर्ष भरा-पूरा हो, इसी शुभकामना की आराधना है होली।

होली से सम्बद्ध अनेक पौराणिक कथाओं का उल्लेख किया जाता है। एक कथा के अनुसार, जन हिरण्यकशिपु अपने ईश्वरभक्त पुत्र प्रह्लाद को किसी उपाय से मार न सका, तो उसने एक युक्ति सोची। उसकी बहन होलिका थी। उसे वरदान मिला था कि उसकी गोद में जो कोई बैठेगा वह खाक हो जाएगा। प्रह्लाद होलिका की गोद में बैठाये गये, किन्तु उनका बाल बाँका न हुआ। पीछे प्रभु ने नृसिंहावतार धारण कर उनके पिता हिरण्यकशिपु का नाश किया। अतः होलिकादहन और होलिकोत्सव नास्तिकता पर आस्तिकता, बुराई पर भलाई, दानवत्व पर देवत्व की विजय का स्मारक है।

एक कथा के अनुसार होली या मदनोत्सव भगवान् शिव के कामदहन का साक्षी है, तो दूसरी कथा के अनुसार जब भगवान श्रीकृष्ण ने दुष्टों का दलन कर गोपबालाओं के साथ रास रचायी, तो इसका प्रचलन हुआ।

वस्तुतः, मनुष्य के जीवन का अधिकांश कष्टों से ही भरा है। यदि वह दिन-रात तिल-तंडल की ही चिन्ता में घुलता रहे, यदि वह आकांक्षा और निराशा के दो पाटों के बीच ही पिसता रहे, तो उसके जीवन और जानवर के जीवन में कोई अन्तर नहीं रहेगा। उसका जीवन नरक का खोलता हुआ कड़ाह बन जाएगा। अतः संसार के प्रायः सभी देशों में उल्लास और उन्मुक्ति के त्योहार मनाये जाने लगे और उनमें सर्वोत्तुम है होली। रोम-राज्य के फेस्टम स्टलटोरम, मेटोनालिया. फेस्टा इत्यादि ऐसे ही पर्व थे। जर्मनी में भी ऐसा रंगपर्व मनाया जाता था जिसमें लोग खुशी और मस्ती की एक-एक बूंद उलीच देना चाहते थे।

हमारे देश में वसंतागमन का यह पर्व जिस धूमधाम से मनाया जाता रहा है उसका क्या कहना । द्वापर में कालिन्दी-कूल पर कन्हैया और गोपबालाओं की होली की बात तो छोड़िए, आज भी वृन्दावन की कुंजगलियों में जब सुनहली पिचकारियों से रंग के फव्वारे छटते हैं और सुगन्धित अबीर और गलाल का छिड़काव होता है. तो स्वयं देवेश इन्द्र भी इस भारतभूमि में जन्म लेने के लिए लालायित हो उठते हैं। भारतवर्ष के कोने-कोने में यह उत्सव मनाया जाता है। यह वह दिन है जब धनी-निर्धन, गोरे-काले, ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध के बीच की भेदक दीवार टूट जाती है और मनुष्य केवल मनुष्य रह जाता है।

होली का वर्णन हमारे साहित्य में बड़ा ही चित्ताकर्षक हुआ है। क्या कबीरदास, क्या सूरदास, क्या तुलसीदास, क्या रसखान, क्या पद्माकर, क्या निराला—सभी ने इसका बड़ा ही मनोरम वर्णन किया है। चाहे सगुण ब्रह्म हों या निर्गुण, चाहे राम हों या कृष्ण, चाहे बड़े लोग हों या छोटे-सभी होली के रंग में रंग दिये गये हैं।

महात्मा कबीरदासजी कहेंगे-'नित मंगल होरी खेलो', तो महाकवि सूरदास कहेंगे-'खेलन हरि निकसे बज खोरी'। गोखामी तुलसीदास कहेंगे-खेलत बसंत गजाधिराज', तो कविवर निराला कह उठेंगे—'नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे, खेली होली'।

किन्तु, कुछ अबोध जन इस दिन दूसरों पर सड़ा कीचड़ उछालते हैं, पत्थर फेंकते हैं ताड़ी और दारू की बोतलें डकारकर शर्मनाक गाने गाते हैं और गाली-गलौज करते है। यह विकृति यदि शीघ-से-शीष दूर हो, तभी हमें अपनी संस्कृति पर गर्व करने का अधिकार होगा और होली की मिलनसारी समझने का हक होगा।

यदि दीपावली ज्योति का पर्व है तो होली प्रीति का; यदि दशहरा में शक्ति की पूजा होती है तो होली में भक्ति और प्रेम की अवतारणा। होली का लाल रंग प्रेम और बलिदान-दोनों का ही प्रतीक है। यह जन-जन को एक तार में गूंथ देनेवाली है। होली सचमुच हो-ली है।