संगति 
Satsangati


'संगति' का अर्थ है, 'साथ'। मनुष्य का जीवन नीरस हो जाय, सूना हो जाय, यदि उसे किसी का साथ न मिले, उसे किसी की संगति न मिले। किन्तु हम किसकी संगति करें, किसकी संगति न करें-यह विचारणीय है।

उत्तुम मनुष्यों की संगति से हमारा जीवन सुधर जाता है, हमारे जीवन में समृद्धि और सम्मान के सारे दरवाजे खुल जाते हैं। जैसे खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, उसी प्रकार अच्छे मनुष्यों की संगति से हमारा रंग बदल आता है, आचरण सुधर जाता है। काँच सूर्य की सुनहली किरणों का संस्पर्श पाकर मरकत-द्युति प्राप्त कर लेता है; कीट भी सुमन की संगति में सुरों के सिर पर चढ़ता है। काला-कलूटा सस्ता लोहा जिस प्रकार पारस की संगति से मूल्यवान दमकता सोना बन जाता है, उसी प्रकार एक साधारण मनुष्य भी महापुरुषों, ज्ञानियों, विचारवानों एवं महात्माओं के संग से बहुत ऊँचा उठ जाता है। कबीर ने ठीक ही लिखा है-


कबिरा संगति साधु की, हरे और की व्याधि। 

संगति बुरी असाधु की, आठो पहर उपाधि ।।


वानर-भालुओं को कौन स्मरण रखता है? किन्तु हनुमान, सुग्रीव, अंगद, जाम्बवान-सभी अविस्मरणीय बन गये हैं। क्योंकि उन्होंने श्रीराम की संगति की थी। इसी तरह गौतुम बुद्ध, श्री रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गाँधी इत्यादि के सम्पर्क में आकर कितनों के जीवन की गतिविधि बदल गयी कितने जीवन के मैदान में विजयी हुए तथा संसार के इतिहास में अमर हो गये।

यदि मनुष्य कुसंगति में पड़ जाय, तो उसका सर्वनाश सुनिश्चित है। काजल की कोठरी में चाहे कैसा भी सयाना क्यों न चला जाय, उसे काजल की रेख अवश्य लग जाएगी। दूध जैसा पवित्र पदार्थ भी कलारिन के हाथ हो, तो मदिरा समझा जाता है। रहीम ने ठीक ही लिखा है


रहिमन नौचन सग बसि, लगत कलंक न काहि ।

दूध कलारिन हाथ लखि, मद समझहि सब ताहि ।। 


अतःबुरे मनुष्यो की संगति कभी नहीं करनी चाहिए। एक लैटिन लोकोक्ति है-'यदि तुम सदैव उनके साथ रहागे जो लैंगड़े हैं, तो तुम स्वयं लैंगड़ाना सीख जाओगे। जर्मन लोकोक्ति है-जब फाख्ता का कौओं से संयोग होता है, तो फाख्ता के पैर श्वेत रह जाते हैं, किन्तु हृदय काला हो जाता है।' गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-

को न कुसंगति पाइ नसाई।

रहै न नीच मते चतुराई ।। 

अतः हमारी सर्वदिक प्रगति की स्वर्णिम कजियों में एक है-सुसंगति । 'संसर्गजाः दोष-गुणाः भवन्ति'-संसर्ग से दोष गुण होते हैं। बहूत प्रौढ़ हो जाने पर महात्माओं को भले ही कुसंगति का विष न व्यापे-चंदन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग'; किन्तु बच्चों एवं सामान्य मनुष्यों को सुसंगति बनाती है और कुसंगति बिगाड़ती है-इसमें कोई सन्देह नहीं।

अतः यदि हम लौकिक और पारलौकिक उन्नयन चाहते हैं, तो संगति के महत्त्व को समझें-सुसंगति के महत्त्व को समझें। यह सुसंगति सचमुच गमन, ज्ञान, प्राप्ति, मोक्ष इत्यादि सभी अर्थों में हमें गति प्रदान करती है-यह बिलकुल सच है। अतः हम अपने जीवन के क्षण-क्षण को सुसंगति में ही बितायें

एक घड़ी, आधौ घड़ी, आधौ में पुनि आध। 

तुलसी संगति साधु की, हरै कोटि अपराध ।।