वर्षा ऋतु 
Varsha Ritu

वर्षाऋतु ऋतुओं में पटरानी है। यह जब सजधजकर आती है, तब सारी सृष्टि खिलखिला उठती है। यह जब कोपभवन में जाती है, तब एक दशरथ की बात कौन कहे, प्रत्येक प्राणी की आँखों के आगे अँधेरा-सा छाने लगता है। वैसे तो इस ऋतु का पर्यटन काल आश्विन से कार्तिक तक है, किन्तु राम-नाम के युगल वर्णों जैसे पवित्र सावन और भादों मास ही इसकी मनोवांछित लीला-भूमि हैं।

वर्षाऋतु में प्राकृतिक सौन्दर्य अपनी तरुणाई पर रहता है। लगता है, जैसे हरी मखमली कालीन पर प्रकृति-सुन्दरी लेटी हो। इस ऋतु का गुणगान वैदिक ऋषियों ने 'निकामे निकामे नः पर्जन्योऽभिवर्षतु', अर्थात 'हमारे मन-मुताबिक बादल बरसा करें" कहकर किया था। तबसे शायद ही कोई उत्कृष्ट कवि हो, जिसने इसकी महिमा न गायी हो। आदिकवि वाल्मीकि ने लिखा है कि बिजली की पताका और बलाका की माला धारण किये हुए शैलशिखर-से डीलडौलवाले मेघ रणमत्त गजेन्द्र की तरह गर्जन करते हैं। हिन्दी में विरहलीला के सहदय गायक धनानन्द कवि ने प्रार्थना की- 'परजन्य जथारथ है बरसो, अर्थात हे परजन्य (पर्जन्य- बादल)! तुम्हारा नाम पर- (परायों के लिए) जन्य (उत्पन्न) है, अतः मुझ पराये के लिए भी अपने नाम की साख रखते हुए कुछ बरसो।' वर्षा-ऋतु के आगमन से सर्वत्र संगीतोत्सव हो जाता है-भरि का गुंजन वीणा की झंकार है, मेढक की ध्वनि कण्ठताल है तथा मेघगर्जन मृदंग की धमक है। पंतजी ने लिखा है-


झमझम-झमझम मेघ बरसते है सावन के 

छमछम गिरती बूंद तरुओं से छन-छनके, 

चमचम बिजली लिपट रही रे उर से घन के

थम-थम दिन के नभ में सपने जगते मन के। 

'नजीर' अकबराबादी फरमाते हैं-

बादल हवा के ऊपर ही मस्त छा रहे है। 

झड़ियों की मस्तियों से धूम मचा रहे है। 

पड़ते हैं पानी हरजा जल-थल बना रहे हैं। 

गुलजार भीगते हैं, सब्जे नहा रहे हैं।

क्या-क्या मची हैं, यारो, बरसात की बहारें। 


वर्षाऋतु केवल नयन-रंजन ही नहीं करती, वरन् इसके आगमन पर ही कृषि का फल निर्पर करता है-ऐसा कविकुलगुरु कालिदास ने ठीक ही कहा है। अँगरेजी की एक कहावत है-Handsome is that handsome does. वर्षाऋतु सुन्दर इसलिए भी है कि यह सुन्दर काम करती है। सारे संसार में अकाल का ताण्डव हो जाय, भूख की ज्वाला में सृष्टि की हर खूबसूरत कली मुरझा जाय, यदि वषदिवी का पदार्पण न हो। सावन की बदरिया बरसकर भले ही, किसी दीवानी मीरा को उसके मनभावन के आवन की सुधि दे जाय, किन्तु हमें तो इसमें नवजीवन की शिवा के आगमन की. ही सूचना मिलती है।

कभी-कभी अतिवृष्टि हो जाती है और इसमें हमें किसी इन्द्रकोप की भनक मिलने लगती है और तब सरकार को बड़ी मुश्किल से गोवर्द्धन उठाना पड़ता है, किन्तु अतिवृष्टि से जो जन धन की क्षति होती है, उसकी पूर्ति असम्भव है। सचमुच 'अति' होती ही बुरी है-अति सर्वत्र वर्जयेत् !

फिर भी, वर्षाऋतु महारानी ही नहीं, वह महादेवी है जिसके कृपा-कटाक्ष के लिए हम सभी लालायित रहते हैं। इसके आज्ञाकारी अनुचर मेघ से हम कह उठते हैं-'हे मेघ ! तुम सूर्य के लाल नयन में काजल डालकर उसे सुला दो, वृष्टि के चुम्बन बिखेरकर तुम चले जाओ, जिससे हमारे अंग हर्ष से फड़क उठे।'

सूर्येर रक्तिम नयने तुमि मेघ ! दाउ से कज्जल पाड़ाओ घूम। 

वृष्टिर चुम्बन बिधारि चले जाउ-अंगे हर्षेर पडूक झूम!-सत्येन्द्रनाथ दत्त