मेरे बड़े भाई साहब 
Mere Bade Bhai Sahab


सन् 1908 ई. की बात है। दिसंबर का आखिर या जनवरी का प्रारंभ होगा। चिल्ला जाड़ा पड़ रहा था। दो-चार दिन पूर्व कुछ बूंदा-बाँदी हो गई थी, इसलिए शीत की भयंकरता और भी बढ़ गई थी। सायंकाल के साढ़े तीन या चार बजे होंगे। कई साथियों के साथ मैं झरबेरी के बेर तोड़-तोड़कर खा रहा था कि गाँव के पास से एक आदमी ने ज़ोर से पुकारा कि तुम्हारे भाई बुला रहे हैं, शीघ्र ही घर लौट जाओ। मैं घर को चलने लगा। साथ में छोटा भाई भी था। भाई साहब की मार का डर था, इसलिए सहमा हुआ चला जाता था। समझ में नहीं आता था कि कौन-सा कसूर बन पड़ा। डरते-डरते घर में घुसा। आशंका थी कि बेर खाने के अपराध में ही तो पेशी न हो। पर आँगन में भाई साहब को पत्र लिखते पाया। अब पिटने का भय दूर हुआ। हमें देखकर भाई साहब ने कहा- "इन पत्रों को ले जाकर मक्खनपुर डाकखाने में डाल आओ। तेज़ी से जाना, जिससे शाम की डाक में चिट्ठियाँ निकल जाएँ। ये बड़ी जरूरी