पिताजी द्वारा पक्के किए हुए विवाह संबंध को नकारते हुए पुत्र का पत्र 


दिल्ली विश्वविद्यालय होस्टल, 

दिल्ली ।

दिनांक 20 मई, ....... 


पूज्य पिता जी,

सादर प्रणाम । 

अत्र कुशलं तत्रास्तु । आपका 18 मई का जब पत्र मिला, उस समय मैं कुछ सहपाठियों के साथ नेपाल यात्रा की योजना बना रहा था । पत्र को पढते ही सब कुछ धरा रह गया । ऐसा लगा मानो मेरा देवता ही कुँच कर गया हो। विवाह जैसी मेरे जीवन की गूढ़ समस्या का आप इस प्रकार हल कर लेंगे, स्वप्न में भी मुझे आशा न थी । मेरे ये शब्द कदाचित आपको चुभे । यह कटु सत्य है कि कन प्रिया मेरी देखी-भाली और बचपन की साथिन है । मेरा अधिकांश समय उसके घर पर ही बीता है । मौसी जी के मदुल प्यार को मैं अभी तक नहीं भुला सका हूँ । कनु का नटखटपन अब भी मेरी आँखों के सामने है। पर पिता जी मैंने कनु को इस दृष्टि से कभी नहीं देखा कि वह मेरी जीवन संगिनी बनेगी। मैंने उसे कुमुद के समान ही समझा है। जिसे मैं एक बार बहन का स्नेह दे चका हूँ उसे जीवन संगिनी के रूप में देखना महा पाप है । मैं जान-बूझकर ऐसा घिनौना कृत्य कभी न करूँगा । इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। अब आप अविलंब बाबू गोपीनाथ जी को इस संबंध की इंकारी से सूचित कर दें।

इस संबंध में एक और प्रस्ताव मेरे सामने है। लड़की सुंदर, सुशील और मेरी सहपाठिनी है । घर-बार भी विशेष रूप से संपन्न है । नेपाल में उनकी वूलन मिल है । इकलौती बेटी होने के कारण मुझे नेपाल में उसके पिता के व्यवसाय में हाथ बँटाना होगा । इसलिए आजीविका की भी मेरे सामने कोई समस्या नहीं रही है। उनकी ओर से स्वीकृति आ चुकी है और मैं सुमन तथा कई सहपाठियों के साथ कल नेपाल को प्रस्थान कर रहा हूँ।

शेष बातें वहाँ से लौटने पर सूचित करूँगा । आशा है कि मेरी इस अस्वीकृति को विशेष तूल न देंगे । माता जी को मेरा प्रणाम कहना और कुमुद को मृदुल प्यार ।

आपका प्रिय पुत्र,

ललित