पुस्तकालय-क्रान्ति  
Pustkalaya Karanti



अधिकांश विद्यालयों के पुस्तकालय में पुस्तकों में दीमक लग रही है। पुस्तकों पर मनों (दुनिया भर की) पक्की धूल जमी है। ढेर की ढेर पुस्तकें प्रतिवर्ष विद्यालयों में जमा होती जा रही हैं और खासे पुस्तकालय पुस्तकों की संख्या को दृष्टि में रखकर तैयार हो चुके हैं। अच्छे पुस्तकालय देश की प्रगति के प्रतीक हैं। जिस देश में जितने अधिक अच्छे पुस्तकालय हैं, वह देश उतना ही अधिक सम्पन्न और विकासशील है। इस दृष्टि से समृद्धिशाली पुस्तकालयों का विस्तार होना निश्चित ही बौद्धिक, आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक क्रान्ति का द्योतक है, परन्तु राजकीय राशि तथा लोकल फण्ड से विकसित होने वाले पुस्तकालय तब तक अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते जब तक कि उनमें संग्रहीत पुस्तकें अधिक-से-अधिक जनों के द्वारा पढ़ी-समझी नही जाती। तथ्य यह है कि पस्तकालयों में तेजी से पुस्तकों का आना शुरू हुआ है। 

उसकी रफ्तार को मद्देनजर रखते हुए पुस्तकों के अध्ययन करने वालों की संख्या निरंतर न्यून से न्यूनतम होती जा रही है। कहीं-कहीं तो वर्षभर पुस्तकालय बन्द से रहते हैं या बीच में खुल भी जाते हैं तो निरीक्षण होने के कारण से, उसी समय हाँ होती है और दीमक लगी पुस्तकों को निरीक्षक महोदय के सामने पेश कर उनको नष्ट करने की कार्रवाई की आवश्यकता पर ध्यान दिलाया जाता है और यूं कितनी ही हतभाग्या पुस्तकें बिना किसी की आँखों से गुजरे काल के गाल में समा जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि सरकार की पूर्व-निर्धारित योजना में इजाफा होने के स्थान पर घाटा होता है। और साभ्यतिक, सांस्कृतिक तथा बौद्धिक क्रान्ति बाल-बाल होने से बच जाती है।

विद्यालयों में जितनी दिलचस्पी पुस्तकें खरीदने में प्रायः रखने को मिलती है। उससे बहुत कम अभिरूचि पुस्तकालय व्यवस्था में नजर आती है। पुस्तकालय कम से कम विद्यालय-समय के अलावा सुबह-शाम अलग से खुलना चाहिए। कारण 'स्कूल के समय' में छात्र पुस्तकालय व वाचनालय का आवश्यकतानुरूप प्रयोग नहीं कर पाते हैं क्योंकि वे कक्षाओं में अध्ययनरत रहते हैं।

आज आवश्यकता इस प्रयास की है कि पुस्तकों को दीमकों से बचाकर अधिक-से-अधिक दिमागों के लिए खुराक के रूप में इस्तेमाल किया जाए। इस दृष्टि से पुस्तकालय आकर्षक हो, साज-सज्जा से पूर्ण हो। छात्रों को वहीं बैठकर मनपसंद पुस्तक पढ़ने की इजाजत हो। पुस्तकालय में प्रवेश करने और वहाँ से जाने के समय छात्र हस्ताक्षर करे। साथ ही एक पंजिका ऐसी भी रखी होनी चाहिए, जिसमें छात्र यदि किसी पुस्तक पर अपनी राय लिखना चाहे तो लिख सके। उस पंजिका के प्रारम्भ में "इंडैक्स" रहना चाहिए जिसमें निबन्ध, कहानी, उपन्यास, राजनीति-शास्त्र, इतिहास आदि पुस्तकों के संबंध में राय लिखने के लिए पृष्ठ संख्या अंकित हो, यथा 1 से 15 तक उपन्यास, 16 से 30 तक इतिहास। छात्र जिस विषय पर पुस्तक पढ़ेगा, यदि वह चाहेगा तो तत्सम्बन्धी पुस्तक पर अपनी राय "इंडैक्स" में दर्शाए पृष्ठ पर लिख सकेगा। इस प्रकार विभिन्न विषयों पर न केवल छात्रों की राय आसानी से जानी जा सकेगी बल्कि छात्रों की रूचि, उनके स्तर पर बोध का भी पता चल सकेगा और अन्त में जाकर उनकी रायों के अध्ययन से बहुत कुछ सार्थक निर्णय लिए जाने में सहायता मिल सकेगी।

पुस्तकालय के बाहर बोर्ड हो, जिस पर जाली रहे और उसके अन्दर 'रैपर' लगाए जाएं-

कम-से-कम सत्र में आने वाली पुस्तकों के। उसके साथ ही एक बोर्ड ऐसा होना चाहिए जिस पर गत सत्र अथवा सत्रों में विभिन्न विषयों की पढ़ी-जाने वाली पुस्तकों के 'रैपर' लगाए गए हों तथा साथ में उन पर अंकित की गई राय के आवश्यक वाक्यों को मय छात्र के नाम अथवा कक्षा के माध्यम से लिखा गया हो। यों यदि व्यवस्था जम जाए तो यह काम मासिक/ द्विमासिक/त्रैमासिक आधारों पर चालू सत्र में भी किया जा सकता है। छात्रों में आत्म-प्रदर्शन की भावना बलवती होती है, इससे उसे पर्याप्त अवसर मिल सकेगा। इसी आधार पर देश भर के पुस्तकालयों में विभिन्न विषयों में सबसे अधिक पढ़ी गई। पुस्तकों के नाम आ सकेंगे और जिन्हें 'पत्रिका के माध्यम से प्रकाशित कर लेखक तथा पाठक के मध्य खासा विचार-मंच तैयार किया जा सकेगा।

पुस्तकों को मानसिक आयु के आधार पर समान्यतया वर्गीकृत करने का यत्न होना चाहिए। यह जरूरी नही है कि कक्षा स्तर अथवा आयु के अनुसार वर्गीकृत की गई पुस्तकों में से ही छात्र अपनी मनपसन्द पुस्तक छाँटने-पढ़ने के लिए विवश हो बल्कि वह वर्गीकरण तो पुस्तकों को पढ़ने के लिए छाँटने में सिर्फ मार्गदर्शन करने की सुविधा प्रदान करेगा। अक्सर ऐसा होता है कि छात्र कोई भारी-भरकम पुस्तक उठा ले जाता है और फिर उसे पढ़ते समय सिरदर्द महसूस करता है। इस प्रकार उसमें पुस्तकों के प्रति अरूचि पैदा होने लगती है।

पुस्तकालय में पुस्तक-गोष्ठी का आयोजन प्रति माह किया जा सकता है, जिसमें चर्चित होने वाली पस्तकों की घोषणा पूर्व में की जाएगी। छात्र तथा अध्यापक दोनों का ही उन पुस्तको पर - "पेपर रीडिंग" और प्रश्नोतरात्मक ढंग का प्रयत्न रह सकता है। "पेपर रीडिंग ओर प्रश्नोतरात्मक ढंग के लिए प्रयास का संक्षिप्त विवरण रखा जाता है। गोष्ठी का समय पुस्तकालय के अतिरिक्त समय में खुलने के वक्त रखा जाए तो इससे यह लाभ होगा क्योंकि उसमें रूचि रखने वाले छात्र अवश्य हिस्सा लेंगे। इस गोष्ठी के लिए बाहर से व्यक्तियों को आमंत्रित किया जा सकता है और विद्यालय निरीक्षण के लिए आए हुए महानुभावों से भी निवेदन किया जा सकता है, जिससे अधिकारी वर्ग तथा छात्रों में आत्मीयता पैदा हो सके और वे परस्पर समझने की सहज दृष्टि पा सकें। यों छात्रों की महान व्यक्तियों से साक्षात्कार करने की दृष्टि से विस्तार होगा, गम्भीरता आएगी और साक्षात्कार लिखने की विद्या में निपुणता प्राप्त होगी।

विद्यालयों में समय-समय पर प्रकाश अपनी विषय-सूची तथा नई पुस्तकों की सूचना भेजते रहते हैं, जिसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है। पता नहीं कि ऐसा क्यों किया जाता है? प्रकाशक कागज, छपाई तथा डाक-खर्च वहन करता है, सो क्यों? उसके द्वारा प्रेषित की गई सामग्री का प्रयोग होना चाहिए। वह इस रूप में हो सकता है कि प्रकाशक से प्राप्त सूची पत्रों तथा अन्य सूचनाओं की पुस्तकालय के नोटिस बोर्ड पर लगाया जाए और छात्रों को उसमें से पुस्तक छाँटने और छाँटकर पुस्तक का नाम, लेखक का नाम, मूल्य तथा प्रकाशक का नाम लिखकर पुस्तक अध्यक्ष को देने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। पुस्तकें माँगते समय उनका विशेष ध्यान रखा जाए तथा जिन छात्रों की माँग पर जो-जो पुस्तकें मँगाई गई हो, उन छात्रों का नाम प्रार्थना-सभा में अवश्य सुनाया जाए ताकि वे छात्र अपनी मँगाई पुस्तकों का न केवल स्वयं अध्ययन कर सकें बल्कि दसरे छात्रों को भी पढ़ने हेतु प्रोत्साहित कर सके।

प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक शालाए जिनके पास पुस्तकालय का अभाव रहता है, जहाँ अध्यापक चाहते हुए भी विभिन्न पस्तकों के अध्ययन से वंचित रह जाते हैं, उनको सेकण्डरी तथा हायर सेकण्डरी के पस्तकालय से संबंध किया जाना चाहिए। वे माह में एक या दो बार अपने तथा अपने छात्रों के लिए वहाँ से पुस्तकें ले जा सके और समय पर उनको लौटा दें।

जिला स्तर पर वर्ष में एक बार अवश्य पुस्तक मेला लगना चाहिए, जिसके द्वारा देश-विदेश में होने वाली प्रगति को समझाया जा सके और अध्यनशील अध्यापक तथा छात्रों की विभिन्न पुस्तकों पर दी गई राय का प्रकाशन हो सके, विषयानुसार श्रेष्ठ पढ़ी गई पुस्तकों के नाम सामने लाए जा सकें। देश भर में होने वाली पुस्तक-प्रगति के आँकडे अन्तर्राष्ट्रीय पुस्तक-प्रगति के सन्दर्भ मे चार्ट द्वारा प्रस्तुत किए जाए। इस कार्य में प्रकाशक संघ से (आँकड़े इकट्ठे करने के सम्बन्ध में) सहायता ली जा सकती है। पुस्तकों के प्रति गम्भीर रूचि रखने वाले योग्यतम छात्रों को इस अवसर पर पुरस्कृत भी किया जा सकता है। पुस्तक मेले के समय पर ही पत्रिका-प्रदर्शनी का आयोजन भी किया जाए। जो पत्र-पत्रिकाएं विद्यालय में न ही आती है, प्रयत्न करने पर उनकी एक-एक प्रति प्राप्त हो सकती है और उनका प्रदर्शन किया जा सकता है।

उपर्युक्त बिन्दुओं पर प्रत्येक विद्यालय अपनी परिस्थितियों तथा सविधाओं को ध्यान में रखकर इस प्रकार से छोटे अथवा बडे रूप में कार्य प्रारम्भ कर सकता है। इसके अलावा और नए तरीकों की ईजाद कर सकता है। अपने विद्यालयों में अभी तक इस दिशा में कार्य करने की सुविधाएं बहुत न्यून है। परन्तु विभाग द्वारा आवश्यक सुविधाएं मुहैया करने पर सहज ही प्रत्येक विद्यालय 'पुस्तकालय-क्रान्ति' में सक्रिय सहायोग प्रदान कर, अध्यापक तथा छात्रों को चिन्तन के लिए नए क्षितिज दे सकता है। निश्चित ही इस प्रकार से कॉफी के प्याले में उठने वाला तनाब और दिशा भ्रमित हो जाएगा। और युवा शक्ति एक नई तथा सशक्त दिशा में कार्यरत हो सकेगी।