बंदीगृह से राजनैतिक बंदी का पत्नी के नाम पत्र ।



बंदीगृह, तिहाड़, 

दिल्ली। 

दिनांक 27 दिसंबर, 


प्रिय सवि,

सप्रेम ! 

यहाँ आए तीसरा सप्ताह जा रहा है । कुछ विचित्र-सा अनुभव जीवन में हो रहा है । न पीड़ा की कुछ घुटन ही है और न तुम्हारे सहवास के आनंद का स्पंदन ही । इस विचित्र-सी स्थिति का उल्लेख कैसे करूं? शब्दों का चयन कहाँ से लाऊँ ? समझ में नहीं आता बस, समय कट जाता है अपने साथियों के बीच वाद-विवाद और विचार विमर्श करने में । इस कारण बंदीगृह की कोई भी

असुविधा, असुविधा-सी प्रतीत नहीं होती । जिस लक्ष्य को लेकर हम सरकारी मेहमान बनाए गए हैं । जिस पुनीत कार्य हेतु तुम्हारे सखद अंचल से निकलकर इन लोहे के विशाल सींकचों और मौन ऊँची-ऊँचे प्राचीरों के बीच आ गए हैं, उसके लिए इस तुच्छ जीवन की आहुति तक देने की इच्छा बलवती होती जा रही है । पर इन पंक्तियों को पढ़कर व्याकुल मत होना; क्योंकि ऐसी घड़ी आनी असंभव ही है।

सवि ! कभी-कभी ऐसे क्षण भी आ जाते हैं, जब तुम्हारी स्मृति आकर व्याकुल कर देती है । घर की याद आने लगती है । मेरी अनुपस्थति में होने वाली पारिवारिक असुविधाओं के स्मरण मात्र से हृदयतंत्री के तार झंकृत हो उठते हैं । बस, बंदीगृह में कोई कष्ट है, तो यही है । शेष तो सब आनंद ही आनंद है । विहान वेला आती, पक्षियों के विहाग से मन मयूर नृत्य कर उठता है और उसके बाद तो पता ही नहीं चलता कि दिन कब बीत गया ? किसी तरह की कोई असुविधा नहीं है।

सरकारी नीति में कोई अंतर नहीं आया है । संभवतः हमारा आंदोलन कुछ लंबा हो जाए और बल भी पकड़ता जाए।

यहाँ पर भेंट करने के लिए आने में तुम्हें व्यर्थ की असुविधा होगी । वैसे भेंट में कोई विशेष रुकावट नहीं पड़ती है। यदि आना हो तो दोपहर से पहले ही आना ।

कविता को प्यार । 

तुम्हारा ही, 

निखिल