भारत-अमेरिका समझौता
Indo-America Deal
भारत तथा अमेरिका दुनिया के बड़े एवं महत्त्वपूर्ण प्रजातांत्रिक देश हैं। दोनों की ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक विशिष्ट स्थिति है। जहां एक ओर सामरिक व आर्थिक स्थिति के संदर्भ में वे एक-दूसरे के विपरीत स्थिति है। जहां एक ओर सामरिक व आर्थिक शक्ति के संदर्भ में वे एक-दूसरे के विपरीत स्थिति रखते हैं- वहीं दोनों में ऐतिहासिक, सामाजिक, भौगोलिक व राजनीतिक संदर्भ में महत्त्वपूर्ण समानताएं भी मौजूद हैं। दोनों ही देश ब्रिटेन उपनिवेश रहे हैं तथा दोनों ने अपनी-अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया है। भौगोलिक दृष्टि से दोनों ही देश विशाल महाद्वीपीय क्षेत्र के धनी हैं। राजनीतिक दृष्टि से दोनों प्रजातंत्र, धर्मनिरपेक्षता एवं संघवाद पर आधारित हैं।
भारत-पाक संबंधों में अमेरिका की पक्षपातपूर्ण नीति भारत का सदैव आहत करती रही। भारत-पाक के मध्य हुए युद्धों में अमेरिका की खुलकर पाक सहायता करना, बांग्लादेश उदय के पूर्व अमेरिका द्वारा हिंद महासागर में अपना नौसैनिक बेड़ा भेजकर भयदोहन की स्थिति पैदा करना आदि कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन्होंने दोनों देशों के मध्य संबंधों को कटुतर से कुटुतम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कश्मीर समस्या, निरस्त्रीकरण, कोरिया संकट, हिंद-चीन समस्या आदि ऐसे कारण थे, जिनमें अमेरिकी रवैया न केवल विपरीत रहा है, अपितु भारत के प्रति भेदभावपूर्ण भी रहा है।
एक ध्रुवीय दुनिया में अमेरिका का आकर्षण सभी को था, भारत को भी। विश्व राजनीति में जहां शीतयुद्ध की स्थिति तक सामरिक या सुरक्षा के मुद्दे देशों की विदेश नीतियों का प्रमुख लक्ष्य होते थे, अब यह लक्ष्य गौण हो गया। अब विकास का कल्याण के लक्ष्य ने प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया है। ऐसे में स्वाभाविक है आर्थिक संपन्नता, आर्थिक विकास, आर्थिक संवृद्धि को राजनीतिक मामलों के ऊपर स्थान दिया जाने लगा।
भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। अमेरिका के व्यापारिक हितों हेतु अच्छा साझेदार बन सकता है, इस सत्य ने अमेरिका को भारत के करीब आने के लिए मजबूर किया। भारत भी चाहता है कि वह विकास की दौड़ में कहीं पीछे न रह जाए, इसके लिए उसे अमेरिकी तकनीक व अमेरिकी पूंजी निवेश की आवश्यकता थी। दोनों की वर्तमान व आधारभूत सच्चाइयों ने एक-दूसरे को करीब लाने में मदद की, किंतु इसके साथ ही निरस्त्रीकरण, कश्मीर समस्या, व्यापारसंबंधी मामलों में अमेरिका का भारत के प्रति दृष्टिकोण, कुछ ऐसे मुद्दे थे जिन पर दोनों ही देशों के मध्य यथाक्त दूरियां कायम थीं। भारत द्वारा 11 व 13 मई, 1998 को किए गए परमाणु परीक्षण ने भारत-अमेरिका के मध्य सुधरते संबंधों को पुनः पतित किया, किंतु उसके बाद कारगिल घटना व बाद की घटनाओं सहित वैश्विक आतंकवाद, पर्यावरण आदि के मुद्दे में दोनों के मध्य संबंधों ने पुनः मधुरता की ओर बढ़ाना शुरू किया।
इस संदर्भ में बिल क्लिटन की मार्च 2002 में संपन्न हई भारत यात्रा को भी देखा जा सकता है। क्लिटन यात्रा के तिस रूप से अमेरिका को इस मात्र से अनुभव हुआ है कि उसके हित भारत के साथ संबंधों को मधुर बनाने में हैं न कि तनाव को बनाए रखने में। उन्होंने अपनी यात्रा में भारतीय लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता व भारतीय संस्कृति की भूरि-भूरि सराहना की।
दोनों ही देशों के मध्य इस भाग के दौरान जो समझौते हए, उसमें आर्थिक मुद्दों को सर्वोपरित होना यही स्पष्ट करता है कि दोनों वर्तमान विश्व व्यवस्था के अनुसार एक-दूसरे के करीब आने में दिलचस्पी ले रहे हैं। भारतीय विदेशमंत्री जसवंत सिंह व अमेरिकी उपविदेशमंत्री स्ट्रोव टालबोट के मध्य संपन्न हुई आठ दौर की वार्ताओं में सी.टी.बी.टी. नामकीय हथियार निर्माण के लिए आवश्यक पदार्थ का निर्माण बंद करने से समझौता, संवेदनशील उत्पाद व तकनीकी के निर्यात नियंत्रण से संबंधित मुद्दा और भारत की सुरक्षा आवश्यकताओं से संबंधित मुद्दे प्रमुख थे, जिन पर सामान्य तौर पर सहमति हो चुकी थी। भारत द्वारा सफल परमाणु परीक्षण किए जाने व प्रयोगशाला में जब क्रिटिकल परीक्षण पद्धति के विकास किए जाने के बाद सी.टी.बी.टी. का मुद्दा भी एक तरह से टल ही गया है। इन सबको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि भारत व अमेरिका के मध्य संबंधों का स्वर्ण युग आरंभ हुआ है। किंतु सिस्टम वार्ता में उठे पर्यावरण व बाल श्रम के मुद्दे जिनको अमेरिका डब्ल्यू.टी.ओ. में शामिल किए जाने की बात कह रहा है, साथ ही भारत को प्रमुख अफगानिस्तान के साथ ही नवंबर, 1999 में नशीले पदार्थों का उत्पादन करने वाले देशों में आश्रित कर पुनः अमेरिका अपनी परंपरागत शीत युद्धकालीन भावना से छूट न पाने का संदेश दे रहा है जो कि दोनों देशों के संबंधों में खटास पैदा कर रहा है।
भारत को इन संबंधों का लाभ अपने पक्ष में आर्थिक दृष्टि से मजबूत होने में करना चाहिए। उसके लिए आवश्यक राजनीतिक स्थिरता को भी बनाए रखना होगा। हम विश्व राजनीति में अपना प्रबल स्थान नहीं बना सकते और न किसी बड़े देश महाशक्तियों से संबंध बनाने में सफल हो सकते हैं।
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