आशा हि परमं दुःखम्
संत अखा स्वर्णकार थे। वैसे तो स्वर्णकार दूसरों को ठगने के लिए बदनाम हैं, किन्तु संत अखा इसके अपवाद थे! ईमानदारी तथा सदाचार के कारण वे बड़े ही लोकप्रिय थे, इसलिए अन्य स्वर्णकारों की तुलना में उनका व्यवसाय अच्छा चलता था ।
एक दिन एक अपरिचित स्त्री ने उनके पास धरोहर के रूप में तीन सौ रुपये रखे। जब वह रुपये वापस लेने आई, तो उसने इच्छा व्यक्त की कि उसके बदले वे उसके लिए एक अच्छी कंठमाला बना दें। कंठमाला तीन सौ रुपये में नहीं बन सकती थी, इसलिए संत ने निश्चय किया कि बाकी रकम अपनी ओर से डालकर वे उसे अच्छी कंठमाला बनाकर देंगे। उन्होंने तद्नुसार लगभग एक सौ रुपये का स्वर्ण मिलाकर कंठमाला बनाई और वह उस स्त्री को दे दी।
स्त्री को जब कंठमाला भारी मालूम पड़ी, तो उसे शंका हुई कि इसमें अवश्य ही कोई धातु मिलाई गई है। दूसरे ही दिन वह संत के पास आई और उसने डाँटते हुए पूछा कि उन्होंने इसमें धातु क्यों मिलाई थी? जब अखा ने उसे बताया कि तीन सौ रुपये में अच्छी कंठमाला बनना संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने अपनी ओर से सुवर्ण मिलाकर उसे बनाया है, तो स्त्री को विश्वास न हुआ और वह कंठमाला लेकर एक दूसरे स्वर्णकार के पास गई। स्वर्णकार ने जब उसकी परख की, तो उसने उसे शुद्ध स्वर्ण की बताया और कहा कि इसका मूल्य लगभग 400 रुपये है। तब वह स्त्री संत के पास पुनः आई और उसने पूछा कि उन्होंने उसे पूछे बिना सुवर्ण क्यों मिलाया था। संत ने उसे विश्वास दिलाते हुए कहा, “तीन सौ रुपये में अच्छी कंठमाला नहीं बन सकती थी, इसलिए मैंने अपनी ओर से शुद्ध सुवर्ण मिलाया है, लेकिन उसका मूल्य मैं आपसे नहीं लूँगा।”
वह स्त्री तो खुश होकर चली गई, किन्तु इस घटना से संत को आत्मबोध हो गया। वे विचार करने लगे, "मैंने इस स्त्री को प्रसन्न करने के लिए अपनी ओर से सुवर्ण मिलाया था, लेकिन इसके मन में खोट आ गया। वास्तव में यह संसार ही बड़ा नश्वर है। लोग स्वयं तो झूठे हैं लेकिन दूसरों को भी झूठा समझते हैं। वे लोभ का संवरण नहीं कर पाते और पाने की आशा करते रहते हैं। अच्छा तो यही होगा कि इस संसार का त्याग कर दूँ, जिससे मुझे भी किसी वस्तु की आशा न रहे।” इन विचारों से उनके चित्त में वैराग्य उत्पन्न हुआ और अपना व्यवसाय त्यागकर वे संत समागम हेतु तीर्थाटन को निकल पड़े।
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