क्रियासिद्धिः सत्वे वसति
महाराज भोज बड़े ही रसिक एवं कविहृदय थे। विद्वानों के लिए उनके द्वार सदैव खुले रहते थे। उनकी काव्य-प्रतिभा से प्रभावित हो, महाराज उन्हें विपुल धन दे, उनका यथोचित सम्मान करते थे।
एक बार उनके दरबार में एक वृद्ध ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र तथा स्नुषा के साथ आया। उन चारों के मुख से विद्वत्ता की आभा टपक रही थी। महाराज ने उन्हें समस्यापूर्ति के लिए एक चरण दिया- क्रियासिद्धिः सत्वे वसति महतां नोपकरणे, और उनसे कहा कि उनमें से जो कोई भी इसकी अच्छी समस्या-पूर्ति करेगा, उसे एक लाख मुहरें दी जाएँगी।
सर्वप्रथम वृद्ध ने सूर्य का उदाहरण देते हुए निम्न श्लोक पढ़ा-
रथस्यैकं चक्रं भुजगयमियाः सप्ततुरगा
निरालम्बो मार्गश्चरणविकलः सारथिरपि ।
रिवर्गच्छत्यन्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः
क्रियासिद्धिः सत्वे वसति महतां नोपकरणे ॥
-अर्थात् "सूर्य के रथ का पहिया एक ही है, रथ के सातों घोड़ों को वश में रखने का साधन सर्पों की रास है, जिस मार्ग पर वह चलता है, उसका कोई अवलंब नहीं है, उसका सारथि अरुण पंगु है। इन सब बाधाओं के होते हुए भी सूर्य प्रतिदिन आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक गमन करता है। इससे यही सिद्ध होता है कि महान् पुरुषों की सिद्धि उनके गुणों पर निर्भर करती है, बाह्य उपकरणों पर नहीं।”
श्लोक सुन राजा भोज बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने विप्र-पत्नी से कहा, "माताजी, क्या आप भी इसकी पूर्ति करेंगी।”
विप्र-पत्नी ने हामी भरी और उसने यह श्लोक पढ़ सुनाया-
घटो जन्मस्थानं मृगपरिजनो भूर्जवसनो
वने वासः कंदाशनमपिच दुःस्थं वपुरिदम् ।
तथाप्येकोऽगस्त्यः सकलमपिबद् वारिधिजलं
क्रियासिद्धिः सत्वे वसति महतां नोपकरणे ॥
-"अगस्त्य मुनि का जन्म एक घड़े में हुआ। हरिण उनके परिजन थे और वृक्षों के वल्कल उनके वस्त्र । वन में उनका वास था और कंद-मूल-फल उनका आहार । फिर भी समूचे समुद्र को उन्होंने अकेले ही पी डाला। इससे सिद्ध होता है कि महान् पुरुषों की सिद्धि उनके गुणों पर निर्भर करती है, बाह्य उपकरणों पर नहीं ।"
जब विप्र-पुत्र की ओर राजा ने देखा, तो उसने निम्न श्लोक पढ़ा-
विजेतव्या लंका चरणतरणीयो जलनिधिः
विपक्षः पौलस्त्यो रणभुवि सहायाश्च कपयः ।
तथाप्येको रामः सकलमवधीद्राक्षसकुलं
क्रियासिद्धिः सत्वे वसति महतां नोपकरणे ॥
“लंका को जीतना था, किन्तु उसके लिए विशाल समुद्र को पार करना था और उस पर कोई सेतु नहीं था। रावण-जैसा बलाढ्य शत्रु था और रणभूमि में सहायक थे वानर। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी श्रीराम ने संपूर्ण राक्षसकुल का नाश किया। इससे सिद्ध होता है कि महान् पुरुषों की सिद्धि उनके गुणों पर निर्भर करती है, बाह्य उपकरणों पर नहीं।” तब महाराज ने विप्र-स्नुषा से पूछा, “देवी! क्या आप भी अपनी कल्पना-विलास का प्रदर्शन कर अपनी प्रतिभा का परिचय देंगी?" तब उसने कामदेव संदर्भ यह श्लोक पढ़ा-
धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी चंचलदृशां
दृशां कोणो बाणः सुहृदपि जडात्मा हिमकरः ।
तथाप्येकोऽनंगस्त्रिभुवनमपि व्याकुलयति
क्रियासिद्धिः सत्वे वसति महतां नोपकरणे ॥
“कामदेव का धनुष पुष्पों का है, उसकी प्रत्यंचा भौंरों की है और बाण लोहे के नहीं, बल्कि चंचल कामिनियों की तिरछी चितवनों से बने हैं। उसका सखा चंद्रमा जड़ एवं शीतल है। फिर भी यह अंगहीन कामदेव सारे त्रिभुवन को व्याकुल कर देता है। स्पष्ट है कि महापुरुषों की सिद्धि उनके गुणों पर निर्भर करती है, बाह्य उपकरणों पर नहीं ।"
चारों की काव्य-रचना से राजा भोज बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रत्येक को एक लक्ष मुद्रा देकर उनका सम्मान किया ।
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