विद्या शील रूप की खानि
एक बार सम्राट् चंद्रगुप्त चाणक्य से किसी बात पर चर्चा कर रहे थे कि अकस्मात् चंद्रगुप्त ने चाणक्य से कहा, “आपकी विद्वत्ता, सूझबूझ और चातुर्य की मैं दाद देता हूँ। मगर क्या ही अच्छा होता, यदि भगवान् ने आपको सुंदर रूप दिया होता!"
चाणक्य ने जान लिया कि राजा को अपने सौंदर्य का घमंड हो गया है और वे सौंदर्य के सामने विद्या को नगण्य समझ रहे हैं। चाणक्य ने सेवक को बुलाकर मिट्टी और सोने के एक-एक पात्र में जल लाने के लिए कहा। उसके द्वारा पात्र में जल लाने पर चाणक्य ने राजा से पहले मिट्टी के पात्र का और बाद में स्वर्ण-पात्र का जल पीने के लिए कहा। फिर राजा से प्रश्न किया, “महाराज किस पात्र का जल शीतल लगा?” चंद्रगुप्त ने उत्तर दिया, “मिट्टी के पात्र का ?"
इस पर चाणक्य ने कहा, “महाराज, वैसे तो दोनों ही पात्रों में ढाला गया जल शीतल था, किन्तु बाहर से सुंदर दिखाई देने वाले स्वर्णपात्र का जल शीतल नहीं रहा, जबकि मिट्टी के पात्र का जल शीतल रहा। यही बात सौंदर्य और विद्या की है। सुंदरता और कुरूपता का विद्या से कोई सम्बन्ध नहीं, बल्कि सौंदर्य से विद्या श्रेष्ठ है।"
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