क्रोधात भवति संमोहः
बाबर की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र हुमायूँ गद्दी पर बैठा। गुजरात और दक्षिण भारत के राज्यों को अपने कब्जे में करते हुए वह बंगाल की ओर बढ़ा और उसने शेरशाह पर आक्रमण किया, लेकिन वह कामयाब न हो सका और उसे पश्चिम की ओर भागना पड़ा। रास्ते में जब उसे पता चला कि गुरु नानक के आसन पर विराजमान गुरु अंगद पास में ही उपदेश दे रहे हैं, तो वह उनका आशीर्वाद लेने के लिए, भेंट लेकर उनके पास पहुँचा। उस समय अंगददेव ध्यानमग्न थे, अतः हुमायूँ की ओर ध्यान न दे सके। जब बहुत देर तक उन्होंने आँखें नहीं खोलीं, तो हुमायूँ को गुस्सा आया और उसने म्यान से तलवार निकालनी चाही। तलवार की आवाज से गुरु अंगद का ध्यान भंग हो गया और उन्होंने आँखें खोलीं। सामने बादशाह को क्रोधित मुद्रा में तलवार निकालते देख सारी बात उनके ध्यान में आ गई। उन्होंने हुमायूँ से कहा, “बड़ी जल्दी गुस्सा आता है तुम्हें! क्या तुम जानते नहीं कि गुस्से से आदमी की अकल मारी जाती है और अकल मारी जाने पर समझदारी नहीं रह जाती और समझदारी न रहने पर वह गलत काम कर बैठता है और फिर उसका नाश होने में देर नहीं लगती ? गुस्से के साथ-साथ तुम्हें अपनी ताकत का भी घमंड है। मगर शेरशाह के सामने तो तुमने हार मान ली और ताकत एक फकीर के सामने दिखा रहे हो? लेकिन मैं इसे बुरा नहीं मानता और तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि कुछ कष्ट झेलने के बाद तुम्हारी जीत होगी।"
कालांतर में हुमायूँ को विजयश्री मिली। उसे अंगददेव के शब्दों का स्मरण हो आया। उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उसने जाने की सोची, किन्तु तब तक गुरु अंगददेव का स्वर्गवास हो चुका था और उनके स्थान पर गुरु अमरदास विराजमान थे, इस कारण वह उनसे न मिल सका।
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