संकष्ट चतुर्थी व्रत
Angarki Sankashti Chaturthi Vrat ki vidhi and Katha
यह व्रत सभी महीनों में
कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को किया जाता है। यति चती दो दिन में पड़ जाए तो पहले दिन
व्रत करें। उस दिन व्रती को चाहिए। कि पात:काल स्नानादि करके स्वच्छ वस्त्र धारण
करके व्रत का संकल्प करें।
इस संकल्प को करके दिनभर मौन रहें।
सायंकाल पुन:स्नान करके चौकी या वेदी पर गणेशजी की मूर्ति स्थापित करें। फिर धूप, दीप, गंध, अक्षत. रोली पुष्प आदि से उनका पूजन करें।
इसके बाद चन्द्रोदय होने पर चंद्रमा का गंध-पुष्प आदि से पूजन करके चंद्रमा को
अर्घ्य दें।
इस व्रत में कुछ व्यक्तियों को यह
जिज्ञासा रहती है कि यह व्रत तो गणेशजी का है फिर इसमें चंद्रमा की प्रधानता क्यों
है?
पुराणों के अनुसार, 'जिस समय पार्वतीजी ने गणेशजी की रचना की, उस समय, चंद्र, इंद्र व अन्य सभी देवतागण उनके दर्शनों के
लिए वहां आए। सभी ने गणेशजी के दर्शन किए परंतु शनिदेव दूर-दूर ही रहे।
कदाचित वे जानते थे कि उनकी दृष्टि जिस
प्राणी या पदार्थ पर पड़ जाती है, उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। उनके
द्वारा गणेशजी के दर्शन न करने का यही कारण था।
परंतु उन्होंने सोचा कि यदि वे इस खुशी के
अवसर पर इस प्रकार दूर-दूर रहेंगे तो माता पार्वती रुष्ट हो जाएंगी। अत: अन्य
देवताओं की भांति वे भी गणेशजी का मुख देखने के लिए आगे बढे। परंतु जैसे ही उनकी
दृष्टि गणेशजी पर पड़ी, वैसे ही गणेशजी का शीश कटकर उड़ता हुआ
चंद्र मण्डल में जा गिरा।
यदि किसी मनुष्य को निकट भविष्य में किसी
अनिष्ट की आशंका हो या वह पहले से ही मुसीबतों से घिरा हो तो उससे छुटकारा पाने के
लिए उसे सकष्ट चतुथी का व्रत करना चाहिए। इस व्रत को कम-से-कम चार वष और समाप्त होने पर आधक-से-अधिक तेरह वर्ष तक करने का विधान है। व्रत
समाप्त हान पर उद्यापन करना चाहिए।
उद्यापन विधिः
इसमें सर्वप्रथम सर्वतोभद्र मंडल पर कलश स्थापित
करके उस पर गणेशजी की मर्ति स्थापित कर पजा करें। पूजन में पुष्प व गध धारण कराएं।
उसी स्थान पर चांदी के चंद्रमा का अर्चन करें। फिर गणेशजी को मोदक का भोग लगाएं।
तत्पश्चात दान आदि देकर ब्राह्मणों को प्रसाद व भोजन अर्पित करें तथा सभी को
प्रसाद वितरित करें। फिर कथा सुनें।
व्रत सार प्राचीन काल में मयूरध्वज नामक
राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही धर्मज्ञ और प्रभावशाली राजा था। एक बार उसका पुत्र
कहीं खो गया और बहत खोजने के बाद भी उसका कहीं पता न चला तब मंत्रीपुत्र की स्त्री
के अनुरोध पर पूरे राजपरिवार ने चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का व्रत किया।
फलतः गणेशजी की कृपा से राजकुमार वापस आ
गया और वह आजीवन अपने पिता व राज्य की सेवा करता रहा।
सन्तानाष्टमी
संतान की खुशहाली के लिए यह व्रत किया
जाता है। इस व्रत में प्रात: स्नानादि करके भगवान श्रीकृष्ण और देवकी जी का गंध, पुष्प आदि से पूजन किया जाता है तथा मध्याह्न में सात्विक पदार्थों का
भोग लगाकर संतान की खुशहाली के लिए प्रार्थना की जाती है।
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