ईसा मसीह 
Jesus Christ

ईसा मसीह ईसाई धर्म के संस्थापक थे। उन्होनें धर्म के शाश्वत सिद्धांतों का प्रचार किया। उन्होनें ईष्र्या ,शत्रुता तथा वैमनस्य में लिप्त संसार को प्रेम ,सहिष्णुता और अहिंसा का संदेश दिया। ईसा मसीह को ईश्वर पुत्र भी कहा जाता हैं। उनके शिष्यों को ईसाई कहा जाता है। उन्होनें मानवजाति के कल्याण के लिए दुःख सहे और अंततः अपना बलिदान दे दिया लेकिन सत्य का मार्ग नहीं छोड़ा । फिलस्तीन का स्थान बैथलेहम कभी रोम के अधीन था। उन दिनों जनगणना करवाने के लिए अपने प्रदेश जाना पड़ता था। तभी कि बात है कि, एक निर्धन यहूदी जनगणना के लिए अपनी पत्नी के साथ बैथलेहम पहुँचा । वहाँ ठहरने के लिए जगह की कमी थी। इसलिए दंपति को सराय के एक अस्तबल में रूकना पड़ा। उसी रात वहां उनके एक पुत्र हुआ जो बड़ा होकर ईसा मसीह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ईसा मसीह की बचपन से ही धर्म के प्रति रूचि थी। वे विद्वानों के बीच बैठकर विचारों का आदान-प्रदान करते और धर्म तथा ईश्वर के प्रति अपनी जिज्ञासाओं को शान्त करते।

एक बार की बात है कि एपके माता पिता यरूशलम आए । ईसु अभी बच्चे ही थे। वहाँ वे कुछ समय के लिए घर से गायब हुए तो पिता को चिन्ता हुई। उन्होनें ईसा की खोज शुरू कर दी। अंततः वे एक साधना स्थल पर मिले। वह विद्वानों के बीच बैठे थे। बालक ईसा के प्रश्नों के उत्तर देना विद्वानों के लिए भी संभव नही हो पा रहा था। इतनी प्रतिभा के धनी थे ईसा। उन्होनें 30 वर्ष की उम्र में घर छोड़ दिया औेेर जाॅन नाम के महात्मा से दीक्षा ली । जाॅन सच्चे और प्रगतिशील व्यक्ति थे। वह ढोंगी धर्म गुरूओं के आलोचक थे। जाॅन से दीक्षा लेने के बाद वे 40 दिनों तक एक जंगल में रहे। वहां उन्होनें उपवास किया और निरन्तर ध्यान में लगे रहे। यहां उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होनें अपना पहला उपदेश एक पर्वत पर दिया। उन्होनें विनम्र रहने ,शान्ति स्थापित करने , बुरा करने वाले का भला करने, गुप्त दान देने तथा सहनशीलता आदि गुणों को आत्मसात करने की आवश्यकता पर जोर दिया। ईसा मसीह जहां एक ओर एक मनुष्य को दूसरें मनुष्य से प्रेम करने का उपदेश देते थे वही दूसरी ओर वे ईश्वर आराधना का उपदेश भी देते थे। वे कहते थे कि मनुष्य को दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा वे स्वयं के साथ चाहते हो। वह प्रेम और क्षमा को धर्म का जरूरी अंग मानते थे।

ईसा मसीह अहिंसा को मानते थे लेकिन यहूदी लोग रोमन दासता से मुक्त होना चाहते थे। इसके लिए वे ईसा की मदद चाहते थे,उनका अन ुरोध था कि , ईसा मसीह स्वतन्त्रता के उनके संग्राम में उनका नेतृत्व करें। लेकिन ईसा मसीह युद्ध के विरूद्ध थे ।
ईसा मसीह का कहना था कि बारही सत्ता अथवा साम्राज्य प्राप्त करने की बजाए हमें ईश्वर के उस साम्राज्य पर अधिकार कर लेना चाहिए जो हमारे दिलों में है। वहां के एक वर्ग को हजरत ईसा मसीह का यह दृष्टिकोण अच्छा नहीं लगा। वे उनके विरुद्ध हो गए और षड्यंत्र करे लगे। ऐसा कहा जाता है कि ईसा मसीह के परम शिष्य जूडास भी उन लोगों के साथ मिल गए और शासकों द्वारा ईसा मसीह पर झूठे आरोप लगाए जाने लगे। अंततः ईसा मसीह को पकड़ लिया गया। उनके हाथ पांव ठोककर उन्हें क्रूस पर लटका दिया गया था।

ईसा मसीह के शिष्यों ने उनका प्रेम, भाईचारा, क्षमा, अहिंसा और सहिष्णुता का संदेश विश्व के कोने-कोने में फैलाया तथा मानव जाति की सेवा तथा उसके उत्थान के लिए कई कार्यक्रम बनाए।