कबीरदास जी 
Kabir Das

कबीरदास जी एक कवि थे। वे क्रांतिकारी,समाज सुधारक और ईश्वर भक्त थे। उन्होनें कविता जैसे माध्यम का प्रयोग , समाज सुधार के कार्य और समाज में फैले पाखण्ड और भ्रान्तियों को दूर करने के लिये किया। उन्होनें कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली थी। कही जाता है कि, उन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं था। फिर भी उनकी कविता का भाव इतना सशक्त बन पड़ा जिसके सामने भाषा या शैली का दोष अपदार्थ हो जाता है। रवीन्द्रनाथ जी की प्रतिष्ठित रचना गीतांजलि पर कबीर की रचना बीजक की गहरी छाप मिलती है। कबीरदास जी के जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है । परन्तु कहते है कि -

‘‘चैदह सो पचपन साल गये,चन्द्रवार इक ठाठ भये।जैठ सुदी बरसाइत को ,पूरनमासी प्रकट भये।।‘‘ 
उनका जन्म संवत 1456 के आसपास हुआ था वे एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से जन्मे थे। समाज के डर से वह नवजात शिशु को एक नदी के किनारे छोड़ गयींे नीरू व नीमा नामक जुलाहा मुस्लिम दम्पत्ति ने उन्हें उठा लिया और उनका पालन-पोषण किया । वे गरीब थे इसलिए कबीर जी की शिक्षा-दीक्षा नहीं करा सके। अतः जैसे ही कबीर जी बड़े हुए उन्हें कपड़े बुनने का कार्य सिखाया। इस कार्य के वे जीवनभर करते रहे और किसी पर आश्रित नही रहे। कबीर जी स्वयं अपनी शिक्षा के बारे में कहते हैं -
मसि कागज छुओ नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
क्बीरदास जी को ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हुई तो वे गुरू की खोज करने लगे। कबीरदास जी स्वामी रामानन्द जी के पास गये और उनसे गुरू बनकर ज्ञान देने की प्रार्थना करने लगे। स्वामी दयानन्द रामानन्द में उन्हें अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया। कबीरदास जी अपनी धुन के पक्के थे।उन्हें पता था कि , स्वामी जी नित्य गंगा स्नान के लिये जाते हैं।एक दिन वे गंगाघाट की सीढ़ीयों पर लेट गये।प्रातः जब हमेशा की तरह स्वामी जी गंगा स्नान के लिए गये तो उनका पैर कबीरदास जी की छाती पर पड़ गया। उनके मुख से अचानक निकला राम राााम कहो भाई। यही बार कबीरदास जी का गुरूमंत्र बन गया। वे जीवनभर राम की उपासना करते रहे।

कबीरदास जी को इसी राम नाम की उपासना से ही ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। ई्रश्वर के दर्शन हुए और सत्य का पता चला। उस समय हिन्दू तथा मुस्लिम धर्म मुख्य रूत सके प्रचलित थे दोनों धर्मों को रूढ़ियों ने जकड़ रखा था। हिन्दू जाति पांति छुआछूत के अलावा मूर्तिपूजा, तीर्थों तथा अवतारवाद को मानते थे।मुस्लिम समाल में रोजा और बांग का प्रचलन था।कबीरदास जी ने समाज तथा दोनों धर्मों में व्याप्त रूढ़ियों पर प्रहार किये। उन्होनें हिन्दूओं की मुर्ति पूजा पर व्यंग्य करते हुए कहा -

‘‘पाथर पूजै हरि मिलें ,हम लेें पूजि पहार।ज की चाकी कोई ना पूजै, पीस खाय ये ससांर।।‘‘मुसलमान पर व्यंग्य करते हुए उन्होनें कहा-काँकर -पाथर जोरि के ,मस्जिद लई चिणाय।ज चढ़ि मुल्ला बाँग दे, का बहरा हुआ खुदाय।।‘‘

क्बीर ईश्वर भक्ति और शुद्ध मन से कर्म करने में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि मानवता द्वारा ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है कोरे किताबी ज्ञान से नहीं। इसलिये उन्होनें कहा है-

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोएढ़ाई आखरद प्रेम का , पढ़े सो पंडित होए।।

कबीरदास जी की रचनाएँ साखी सबद और रमैनी बीजक में संग्रहीत हैं। कबीर जी की भाषा में खड़ी बोली के अलावा पंजाबी,गुजराती,राजस्थानी ब्रज और अवधि के शब्द मिलते है। कबीर जी जीवन भर समाज सुधार के कार्य करते रहे। अंतिम समय में वे काशी चले गये और वही उनका देहान्त हो गया।