मेरा प्रिय कवि 
Mera Priya Kavi

सच्चे कवि राज्य के संरक्षक होते है। वे मानव जाति के पहले शिक्षक है यह कथन राष्ट्र कवि रामधारी पर पूरी तरह से खरा उतरता है। आदिकाल से लेकर आज तक हिन्दी साहित्य में अनेक कवि हुए है। कोई किसी से कम नही है। सूरदास अगर सूर्य के समान है तो गोस्वामी तुलसीदास चन्द्र के समान है। किसी ने कबीर की प्रशंसा की है तो किसी ने जायसी की। लेकिन मेरे प्रिय कवि तो राष्ट्रवादी कवि रामधारी सिंह दिनकरहै। इसका कारण यह है कि यौवन और पुरुषार्थ का गायन करने वाला उनके समान कोई नही है।

एक आलोचक के अनुसार उदात्त मानवीय पौरुष, भारतीय यौवन और राष्ट्रीय जन भावनाओ के अमर गायक है कवि दिनकर। अपनी ओजस्विता के कारण दिनकर राष्ट्रधारा के कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। दिनकर का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया नामक छोटे से गाँव में हुआ। हिन्दी, अंग्रेजी के अलावा भी दिनकर ने संस्कृत, उर्दू,बंगला आदि भाषाओं का भी ज्ञान रखते थे। उर्दू के इकबाल, बंगला के रवीन्द्र,अंग्रेजी के मिल्टन,कीट्स और शैली का इन पर विशेष प्रभाव रहा है। वह पहले क्रांतिकारी, फिर गाँधीवादी और उसके बाद दार्शनिक बने। लेकिन कान्ति की भावना उनमें सदा रही। इसीलिए उन्होंने स्वयं को एक बुरा गाँधीवादीबताया।

वे गाँधीवादी होने के बावजूद भी ईंट का जवाब पत्थर से देने में विश्वास करते थे। इसलिए तो अपनी प्रसिद्ध कविता हिमालयमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि-

रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दे उसको स्वर्ग धीर।'

डसकी जगह गाण्डीवधारी अर्जुन और गदाधारी भीम को लाने को अनुरोध किया है ताकि देश के द्रोहियों से हिसाब-किताव बराबर कर सके। भारतीय यौवन की उन्माद हुँकार केवल दिनकरकी रचनाओं में ही देखने को मिलती है।

इन्होंने आगे बढ़ने, अपने योग्य स्थान तक पहुँचने और महत्त्व पाने के लिए कई तरह के कष्ट सहे, नौकरियाँ की।इन्होंने भागनपुर विश्वविद्यालय में कुलपति का दायित्व निभाया तो देश के शत्रु अंग्रेजों के युद्ध विभाग में नौकरी भी की। इनकी प्रसिद्ध कवितायें रेणुका,हुँकार, द्वन्द्वगीत, रसवंती, बापू, कुरुक्षेत्र, इतिहास के आँसू, धूप और धुआं, नीलकमल आदि है। कुरुक्षेत्रमें यदि युद्ध शान्ति का प्रश्न उठाकर अपरिहार्य स्थितियों में युद्ध को जरूरी बताया गया है तो रश्मिरथीमें अवैध संतान, जाँति-पाँति जैसे प्रश्नों पर विचार करके जाति नही गुणों की पूजा की प्रेरणा दी है। 1962 में चीनी आक्रमण होने पर उन्होंने परशुराम की प्रतीक्षानामक कविता की रचना की।भारतीय सेना का हौंसला अपनी कविताओं से बढ़ाने के लिए उन्हें सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा अन्य कई पुरस्कार भी दिये गये।

सन् 1974 में उनकी मृत्यु हो गयी लेकिन काव्यों के माध्यम से अमर होकर वह हमेशा हमारे लिए प्रेरणा स्त्रोत बने रहेंगे।